सम्पादकीय- अयोध्या विवाद: यादों को भूलना ही एक अच्छे बदलाव का संकेत

अयोध्या विवाद: यादों को भूलना ही एक अच्छे बदलाव का संकेत

 

– सलीम रज़ा….
देहरादून। बहुचर्चित अयोध्या विवाद पर देश की सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुनाये गये फैसले से दोनो समुदाय में संतोष के भाव देखने को मिले ये देश हित में एक अच्छा संकेत जरूर समझा जाना चाहिए। अक्सरकर ये ही देखा जाता है कि, किसी भी विवाद में जब कोई फैसला सुनाया जाता है तो मिश्रित प्रतिक्रिया देखने को मिलती है। ऐसा फैसला किसी को जीत का अहसास दिलाता है, तो कईयों को हार की मायूसी से दो-चार होना पड़ता है। लेकिन जब कोई भी फैसला देश की सर्वोच्च अदालत के द्वारा सुनाया गया हो तो इस बात का कोई भी औचित्य नहीं रहता कि, इस फैसले से कितने लोग खुश हैं और कितने मायूस हैं। अयोध्या विवाद में मुझे एक बात जरूर देखने को मिली, वो थी एक समुदाय विशेष में सकारात्मक बदलाव जो सही मायनों में देश की तरक्की में एक बहुत बड़ा कदम है। शनिवार को उच्चतम न्यायलय द्वारा राम मंदिर मामले में सुनाये गये फैसले के बाद जीत हार के गुणा-भाग को दरकिनार करके दोनों समुदायों के चेहरे से साफ झलक रहा था वो था संतोष। राम मंदिर फैसले के बाद कई बुद्धिजीवियों से मेरी बात हुई जिनका एक ही कहना था कि, हम फिर से 1992 की पुनरावृत्ति नहीं चाहते कम से कम रोज-रोज के फसाद का अंत तो हुआ, ये सबसे बड़ी बात देखने को मिली है। जो देश के आपसी सौहार्द और भाईचारे की मिसाल है ये ही देश की सबसे बड़ी पूंजी है।

 

यहां एक बात का जिक्र करना भी मैं उचित समझता हूं कि, देश के सबसे ज्यादा संवेदनशील और विवादास्पद मामले में मा० उचचतम न्यायालय के द्वारा सुनाये गये फैसले के बाद हारने वाले और उससे जुड़े हुये समुदाय में न्यायलय के फैसले से पैदा हुईं बहुत सारी असहमति के बावजूद उनकी पेशानी पर संतोष की लकीरें देखी गईं। जो सही मायनों में देश की एकता और अखंडता की बेमिसाल पटकथा ही कही जायेगी। कुछ ऐसा ही सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर लोगों द्वारा रोक लगाने के बाद न्यायालय पंहुचे विवाद मे महिलाओ के प्रवेश पर रोक हटाने संबधी फैसला आने के बाद भी एक बहुत बड़ा धड़े ने उच्चतम न्यायालय के फैसले पर अपनी असहमति दिखाई थी। यहां तक की ये बात भी सामने आई थी कि, धर्म के मामले में न्यायालय को फैसला देने का कोई अधिकार ही नहीं है। यहां तक कि, न्यायलय के फैसले को असंतुष्ट लोग मानने को ही तैयार नहीं थे। अगर हम सियासी चश्मे से न देखे तो अयोध्या विवाद में ऐसा कुछ भी सामने नहीं आया। सही मायने में ये एक बहुत बड़ा सामाजिक परिवर्तन ही कहा जायेगा। तकरीबन डेढ़ सौ साल से चले आ रहे राम जन्म भूमि विवाद पर सियासी रोटियां भी सियासी दलों द्वारा खूब सेंकी गईं, तो कई बार ये मामला सांप्रदायिकता की लपटों में लिपटकर सड़को पर भी उतारा गया, इस विवाद को लाईमलाईट करने के लिए सियासी दल द्वारा आन्दोलनों के साथ यात्रायें भी निकाली गईं, नौबत यहां तक पहुंच गई कि, विध्वंस हुये तो देश के कई प्रदेशों को दंगों का काला दिन भी देखना पड़ा था।

 

बहरहाल मुझे एक बात तो जरूर देखने को मिली कि, किसी भी विवाद का हल सड़कों पर उतरकर या राजनैतिक इच्छाशक्ति से नहीं किया जा सकता, ऐसे में मा० उच्चतम न्यायालय द्वारा सुनाये गये फैसले से ये साबित हो गया कि, इस तरह के संवेदनशील मुद्दे का हल अदालत ही है । दूसरी सबसे बड़ी बात है कि, जिस तरह से मा० उच्चतम न्यायालय ने इस संवेदनशील मुद्दे पर लगातार सुनवाई की, उसमे भी अदालत की ऐसे संवेदनशीले मामले में सक्रियता उल्लेखनीय कही जा सकती है। मुझे इस बात को कहने मे बिल्कुल भी संकोच नहीं है कि, ऐसे विवाद और धार्मिक विभाजन देश की तरक्की मे बाधक ही हैं। जिसकी देश को बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। अब देखना ये भी जरूरी है कि, निकट भविष्य में इस फैसले से पैदा हुवे तमाम तनाव कम हो जायें और किसी भी तरह की नई याचिका की पहल सामने न आये। साथ ही इस विवाद से जुड़ी तमाम भावनाओं को जल्द से जल्द भूल जाना ही हितकर है। आपको मिसाल के तौर पर बता दूं कि, हमारे पड़ोसी देश पाकिस्तान जो शत्रुता के रूप में अपनी पहचान बना चुका है, ने सिक्ख तीर्थयात्रियों कें लिए करतारपुर कारीडोर खोलकर जो सकारात्मक संदेश दिया उससे भी हमे सीख लेने की जरूरत है।

 

हमारा देश गंगा-जमुनी तहजीब के लिए विश्व प्रसिद्ध है। जो हमेशा से धार्मिक उत्सवों के लिए भी मशहूर है, सही मायनों में ये ही उत्सव हैं जो धार्मिक मेलजोल के लिए एक सेतु का काम करते हैं। मुझे ये देखकर अपार हर्ष का अनुभव हुआ की शनिवार को अयोध्या विवाद का फैसला आया और अगले दिन यानि रविवार को मुस्लिमों के पर्व जश्ने-ईद मिलादुन्नबी के मौके पर हिन्दु भाईयों द्वारा जो सदभाव की मिसाल पेश की गई वो अकल्पनीय रही। साथ ही जुलूस पर हिन्दु भाईयों द्वारा पुष्प वर्षा करना भी एक सुखद पल था। बहरहाल अ