गैरसैण: घाट के ग्रामीणों की आवाज पर मौन सरकार

घाट के ग्रामीणों की आवाज पर मौन सरकार

– यह कैसा तंत्र जहां गण की नहीं सुनी जाती?
– नेता हमारे भाग्यविधाता या बन गये भस्मासुर?
– आखिर सरकार क्यों नहीं सुन रही घाट के ग्रामीणों की आवाज?

– गुणानंद जखमोला
देहरादून। जिस गैरसैंण में हमारे चुने हुए माननीय विधायक सर्दियों में एक दिन में भी सत्र समाप्त कर फुर्र हो गये थे, उसी जिले के नंदप्रयाग घाट के ग्रामीण पिछले एक महीने से भी अधिक समय से बर्फबारी और कड़ाके की ठंड के बावजूद सड़क पर हैं। 70 गांवों के 50 हजार से भी अधिक ग्रामीण इस आंदोलन में भाग ले रहे हैं। मांग बहुत छोटी सी है कि, इन गांवों को विकास की सड़क से जोड़ दिया जाए। वालीबाॅल में प्रदेश और देश का नाम रोशन करने वाला दिनेश नेगी पिछले दस दिन से भूखा धरने पर बैठा है। लेकिन उसकी चिन्ता हमारे नेताओं और अफसरों को कतई नहीं है। कारण, सत्ता मद में चूर नेताओं की आंखें फूटी हुईं है, कान बहरे हैं और मानसिक दिवालियापन उनको सोचने से रोक रहा है। आखिर क्यों?

गणतंत्र दिवस पर नेताओं से हमारा सवाल है कि, ऐसे तंत्र का क्या! हम अचार डालें जिसमें गण की सुनी ही नहीं जाती? हमें ऑल वेदर रोड नहीं चाहिए थी, क्योंकि हमारी हर सड़क ही आल वेदर है। लेकिन कमीशनखोरी और अपने ठेकेदारों को लाभ पहुंचाने के लिए सरकारों ने हमारे पहाड़ को बेतरतीब ढंग से खोद डाला। आपदा के घर में शीशे के महल बनाए जा रहे हैं। जिस मलेथा की कूल के लिए वीर माधो सिंह भंडारी ने अपने पुत्र का बलिदान दे दिया था, उसी मलेथा को विकास के नाम पर सरकारों ने बर्बाद कर दिया। वहां की बेशकीमती सोना उगलती जमीन पर सुरंग बना डाली। लेकिन सरकार को इतनी समझ नहीं है कि, सुदूर गांव के लोगों को एक अदद सड़क चाहिए ताकि वो भी बीमार होने पर समय पर अस्पताल पहुंच सके।

उनके बच्चे शिक्षा के लिए स्कूल-कालेज जा सकें। ग्रामीण महिलाए सिर पर बोझ कम दूरी तक ढोएं। घाट के गुड्डूलाल को सीएम त्रिवेंद्र रावत ने चुनाव लड़ने से रोक दिया था कि, इस क्षेत्र का विकास करूंगा। उन्होंने कहा था कि, ये सोचो कि चुनाव मैं लड़ रहा हूं। भाजपा का उम्मीदवार नहीं। भोले ग्रामीण सीएम त्रिवेंद्र रावत की कुटिल बातों में आ गये। ऐसा दूसरी बार हुआ। पहली बार हरीश रावत ने ठगा और अब त्रिवेंद्र रावत ने। त्रिवेंद्र रावत देहरादून के सैन्य धाम में सत्ता की शपथ लेना चाहते हैं, लेकिन उन गांवों की सुध नहीं लेना चाहते जहां ऐसे वीर सपूत पैदा होते हैं।

कुछ अहम सवाल:-

● क्या विकास की उत्कंठा केवल शहरी लोगों तक सीमित है?
● क्या वोट बैंक के लिए ही ग्रामीण हैं और उनका जीवन दोयम दर्जे का ही रहना चाहिए?
● क्या उन्हें विकास और सुनहरे सपने देखने का अधिकार नहीं है?
● क्या उत्तराखंड राज्य हमने भ्रष्ट नेताओं और बाहरी नौकरशाहों की ऐशगाह के लिए बनाया?
● क्या हमने अपने लिए ही नेता रूपी भस्मासुर पैदा कर लिए हैं?

यदि ऐसा है तो इनका संहार करना होगा। जनता को तय करना होगा कि, क्या गलत है और क्या सही? जनता ऐसे नेताओं को पहचानें और उन्हें सत्ता की चैखट से कचरे के ढेर में फेंक दे। अब समय आ गया है कि जनता दलों के दल-दल में न फंसे।