कमल नदी के उस पार तलड़ा गांव का दो साल से अधूरा इंतज़ार। जुगाड़ से चल रही जिंदगी
उत्तरकाशी। हिमालय की शांत वादियों के बीच बसा तलड़ा गांव पिछले दो वर्षों से एक ऐसे संकट से जूझ रहा है, जिसने यहां की रोजमर्रा की ज़िंदगी को अनिश्चितताओं में ढकेल दिया है।
कमल नदी पर 2023 की आपदा में बह चुकी पुलिया अब तक दोबारा नहीं बन पाई है, और यही वजह है कि गांव के लोगों को आज भी आवाजाही के लिए जोखिम भरे रास्तों पर निर्भर रहना पड़ रहा है।
विकास के दावों के बीच, ग्रामीण खुद लकड़ियों से अस्थायी पुल बनाकर नदी पार करते हैं—इतना ही नहीं, कई बार पानी बढ़ने पर यह पुल बह जाता है, और लोग मानव श्रृंखला बनाकर दूसरे किनारे तक पहुंचते हैं।
आपदा के बाद उम्मीद थी कि शासन और प्रशासन तत्काल स्थायी पुल का निर्माण शुरू कराएंगे, लेकिन हकीकत इससे उलट रही।
बरसात के मौसम में नकदी फसलें मंडी तक नहीं पहुंच पातीं, महिलाएं सिर पर बोझ उठाए लकड़ी के कमजोर तख्तों से गुजरती हैं, और स्कूल जाने वाले बच्चों की सुरक्षा हर दिन एक नई चिंता बनकर सामने आती है।
इस असुविधा के साथ-साथ यह भय भी बना रहता है कि कहीं एक गलत कदम किसी बड़ी दुर्घटना में न बदल जाए।
पुल निर्माण की मांग को लेकर ग्रामीणों ने 1 सितंबर को सुनारा छानी के समीप पुरोला रोड पर जाम लगाकर जोरदार प्रदर्शन किया था। प्रदेश सरकार के खिलाफ गूंजते नारों के बीच प्रशासनिक अधिकारी मौके पर पहुंचे, और आश्वासन देकर मामला शांत कराया गया।
लेकिन तीन माह गुजर जाने के बाद भी वह आश्वासन केवल शब्दों तक सीमित है। प्रगति का कोई संकेत ज़मीन पर दिखाई नहीं देता, जिससे ग्रामीणों में दोबारा आंदोलन की हलचल शुरू हो चुकी है।
तलड़ा गांव के सामाजिक कार्यकर्ता नवीन चमोली मानते हैं कि अब धैर्य जवाब देने लगा है। उनका कहना है कि प्रशासन ने जिस जल्द कार्रवाई का वादा किया था, वह अब तक कागज़ी प्रक्रिया से आगे नहीं बढ़ी।
यही कारण है कि ग्रामीणों ने एक बार फिर बड़े स्तर पर आंदोलन की तैयारी शुरू कर दी है। उधर, एसडीएम पुरोला का दावा है कि मामले को लेकर शासन के साथ लगातार पत्राचार किया जा रहा है, और स्वीकृति मिलते ही निर्माण की प्रक्रिया आगे बढ़ाई जाएगी।
लेकिन तलड़ा गांव के लिए यह ‘पत्राचार’ अब संवेदना से अधिक औपचारिकता जैसा महसूस होने लगा है। हर दिन बहती नदी, हर कदम पर डगमगाती लकड़ी, और हर शाम घाटी में लौटता अनिश्चितता का धुंध यह सब मिलकर गांव के जीवन को समय के साथ एक मौन संघर्ष में बदल चुका है।
विकास की योजनाएं भले ही दस्तावेज़ों में चमकती हों, लेकिन तलड़ा की असल तस्वीर बताती है कि पहाड़ों के इन दूरस्थ गांवों की प्राथमिकताएं शायद अभी भी फाइलों के ढेरों में खोई हुई हैं।
तलड़ा के लोग आज भी इंतज़ार कर रहे हैं। एक स्थायी पुल का, सुरक्षा का, और उस विश्वास का जो वर्षों से टूटता आया है। अगर जल्द समाधान नहीं मिला, तो यह शांत-स्वभाव गांव एक बार फिर सड़क पर उतरकर अपनी आवाज़ बुलंद करने से पीछे नहीं हटेगा।


