एक्सक्लूसिव: वैंटिलेटर पर ‘लाइफ लाइन’ और तमाशबीन सरकार

वैंटिलेटर पर ‘लाइफ लाइन’ और तमाशबीन सरकार 

 

– योगेश भट्ट
पहाड़ में सडकें अक्सर लंबी हो जाती हैं, इतनी लंबी की जिंदगी सिमट जाती है। कई बार जिंदगी सड़क पर आने से पहले पगडंडियां चढ़ते हुए कंधों पर ही दम तोड़ देती है। अल्मोड़ा जिले के लमगड़ा ब्लॉक के त्युनारा गांव में एक 29 वर्षीय युवक नवीन की जिंदगी की डोर ऐसी ही टूटी। इस साल होली से ठीक एक दिन पहले 28 मार्च को इस युवक के सीने में तेज दर्द होता है, गांव में इलाज की कोई सुविधा नहीं और कोसों दूर स्थित अस्पताल पहुंचना भी आसान नहीं। अस्पताल जाने वाली सड़क और गांव के बीच चार किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई। फिर भी गांव के युवक हिम्मत जुटाते हैं और नवीन को डोली में बिठाकर अस्पताल के लिए निकलते हैं। लंबी पैदल यात्रा के बाद वे युवा नवीन को जब तक अस्पताल पहुंचा पाते हैं तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। नवीन की सांसे थम चुकी होती हैं, वह दम तोड़ देता है।

कल्पना कीजिए, 29 साल का एक युवक जिसके दो छोटे बच्चे हैं, वह असमय इस तरह साथ छोड़ दे तो उसके परिवार पर क्या बीतेगी ? जिस गांव के बीच से यह युवक काल के गाल में समाया होगा उस गांव के लोगों की मनोस्थिति क्या हुई होगी। हर किसी की आह यहीं पर आकर थमती है कि काश, गांव की सड़क बन गई होती। पंद्रह साल हो चुके हैं इस गांव के लिए सड़क की मंजूरी मिले मगर आज तक सड़क का काम शुरू नहीं हो पाया। वर्षों से सरकारी फाइलों में यह दस किलोमीटर लंबी सड़क अब तक सैकड़ों किलोमीटर का सफर तय कर चुकी है। मंजूरी मिलने के बाद दस किलोमीटर की सड़क पंद्रह साल में भी नहीं बन पाई, जो भी सुनेगा आश्चर्य जरूर करेगा कि आखिर क्यों नहीं बन पायी। दरअसल यह एक लंबी कहानी है। एक ऐसी कहानी जो पूरे पहाड़ की पीड़ा है।

साल 2005 अल्मोड़ा जिले में सरकार ने चैलछीना बसंतपुर-जैंती मोटर मार्ग को मंजूरी दी। तकरीबन दस किलोमीटर के इस मोटर मार्ग के लिए 1 करोड़ 39 लाख रुपये की वित्तीय मंजूरी दी गई। इस मोटर मार्ग से लगभग तीस गांव सीधे-सीधे सड़क से जुड़ने जा रहे थे, इसलिए जनता का सपने देखना तो बनता था। इधर जनता सपने देखने लगी थी और उधर सरकारी सिस्टम सड़क की राह में रोड़ा बना हुआ था।

दरअसल इस सड़क के लिए वन भूमि हस्तांतरित होनी थी, जिसके लिए प्रस्ताव तैयार किया जाता है। सिस्टम का नकारापन देखिए कि वित्तीय मंजूरी के बावजूद पांच साल तक तो यह सरकारी फाइलों में ही कैद रही। जनता सपने देखती रही कि सड़क आज शुरू हुई कल शुरू हुई। पांच साल बीते तो जनता हरकत में आयी, तब पता चला कि अभी तो विभाग ने वन भूमि हस्तांतरित करने का प्रस्ताव ही नहीं भेजा है। जाहिर है हल्ला हुआ होगा। सरकार से शिकायत और अफसरों से गुहार के बाद साल 2011 में इस सड़क के लिए वन भूमि हस्तांतरण का प्रस्ताव तैयार करने के लिए पेड़ों की गणना कराई जाती है।

इसके बाद इसी (2011) साल के आखिरी महीनों में प्रस्ताव तैयार कर अल्मोड़ा से देहरादून नोडल अधिकारी के पास भेजा दिया जाता है। अब यहां से शुरू होता है ‘फुटबाल’ का खेल।

अभी तक फाइलों में कैद सड़क वन विभाग और लोक निर्माण विभाग के बीच फुटबाल बन जाती है। देहरादून में बैठे बाबू फाइल पर एक आपत्ति जड़ते हैं और अल्मोड़ा रवाना कर देते हैं। अल्मोड़ा से एक आपत्ति का जवाब देहरादून पहुंचता है तो सरकारी बाबू दूसरी आपत्ति जड़कर वापस अल्मोड़ा रवाना कर देते हैं। यकीन नहीं होता मगर सच यही है कि, पूरे तीन साल तक यह खेल तक चलता रहता है। साल 2014 तक भी सड़क का काम शुरु नहीं हुआ, क्योंकि तमाम आपत्तियों के निस्तारण के बावजूद वन भूमि हस्तांतरित ही नहीं हुई। दुर्भाग्यपूर्ण तो है मगर यहां से कहानी और दिलचस्प हो जाती है।

लोक निर्माण विभाग के अधिकारी बताते हैं कि, शासन से निर्देश आता है कि, वन भूमि हस्तांतरण के प्रस्ताव को ऑनलाइन किया जाए। साल 2014 में यह प्रस्ताव ऑनलाइन कर दिया जाता है। इस पर फिर से आपत्ति आती है, जिसका निराकरण कर दिया जाता है मगर वन भूमि फिर भी हस्तांतरित नहीं होती। पूरे चार साल बीत जाते हैं। वन भूमि हस्तांतरित नहीं हुई तो सड़क का काम भी शुरू नहीं हुआ। जनता फिर दफ्तरों के चक्कर काटना शुरू करती है तो इस बार तो और भी चैंकाने वाला खुलासा होता है। साल 2018 में लोक निर्माण विभाग को पता चलता है कि वन भूमि हस्तांतरण का प्रस्ताव पोर्टल पर है ही नहीं। मसला बेहद गंभीर था, मगर न कोई जांच, न जिम्मेदारी और न किसी की जवाबदेही, कुछ भी तय नहीं होता। जनभावनाओं की किसी को कोई परवाह नहीं।

लोक निर्माण विभाग का कहना है कि इस संबंध में नोडल अधिकारी को कई पत्र और रिमाइंडर भेजे गए लेकिन किसी का जवाब नहीं आया। बहरहाल इधर सड़क की मांग को लेकर दबाव बढ़ा तो फरवरी 2019 में विभाग ने फिर से वन भूमि हस्तांतरण के प्रस्ताव को ऑनलाइन किया। आश्चर्य देखिए कि इस बार नोडल अधिकारी की ओर से हार्ड कॉपी जमा कराने को कहा जाता है। इस निर्देश के क्रम में जनवरी 2020 में वन भूमि हस्तांतरण के प्रस्ताव की हार्ड कॉपी डीएफओ कार्यालय में जमा करा दी जाती है मगर सड़क के लिए वन भूमि हस्तांतरण इसके बाद भी नहीं होता।

इस बार मामला वापस 2011 की स्थिति में पहुंच जाता है। डीएफओ एक बार फिर वन क्षेत्राधिकारी को मोटर मार्ग से प्रभावित होने वाले वृक्षों की गणना कराने के निर्देश जारी कर देते हैं। पेड़ों की गिनती कराने का हालांकि कोई औचित्य नहीं था, क्योंकि पूर्व में एक बार गणना हो चुकी थी मगर विभाग कहता है कि वह गणना तो 2011 की थी और तब से अब तक पेड़ों की स्थिति में काफी अंतर आ चुका होगा। इस आदेश के दस महीने बीतने के बाद दिसंबर 2020 तक भी पेड़ों की गिनती नहीं हो पाती है। दिसंबर 2020 में फिर वृक्ष गणना के लिए लिखा जाता है। आगे क्या हुआ यह तो पता नहीं मगर आज की स्तिति यह है कि सड़क का काम अभी भी शुरू नहीं हुआ है।।

ग्रामीण शासन-प्रशासन से गुहार लगा कर थक चुके हैं, सूचना के अधिकार के तहत सूचनाएं मांग चुके हैं, आंदोलन और विधानसभा चुनाव के बहिष्कार तक की चेतावनी दे चुके हैं मगर किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। विभाग से पूछो कि सड़क कब बनेगी तो साफ जवाब है कि पेड़ों की गणना होगी, जिसके बाद रिपोर्ट डीएफओ साहब के पास जाएगी, तब साहब नए सिरे से वन भूमि हस्तांतरण के लिए फाइल देहरादून भेजेंगे। अगर इस सबके बाद वन भूमि हस्तांतरित होगी तो ही सड़क का काम शुरू होगा।

सड़कों के फाइलों में लंबी होने की कहानी सिर्फ अल्मोड़ा के चैलछीना बसंतपुर- जैंती मोटर मार्ग की ही नहीं है, बागेश्वर के पोथिंग, चंपावत के ढुंगा जोशी, देहरादून में चकराता का जगथान-बुराइला और पिथौरागढ़ के कनालीछीना ब्लाक के लमड़ा गांव की सड़कों की भी यही कहानी है। टिहरी के जौनपुर विकास खंड के खरक और मेलगढ़ में तो दस किलोमीटर सड़क की कटिंग के बाद 13 साल से काम रुका हुआ है। तेरह जिलों के छोटे से राज्य में ऐसी एक, दो नहीं, अनगिनत कहानियां हैं। सरकारी आंकड़े के मुताबिक ही पिथौरागढ़ से लेकर नैनीताल, चमोली, पौड़ी, देहरादून और उत्तरकाशी जिले तक 500 से ज्यादा सड़कें ऐसी हैं जो वर्षों से फाइलों में कैद हैं। राज्य में कुछ इलाके तो ऐसे हैं जहां अंग्रेजी शासन में बिजली पहुंच चुकी थी मगर इक्कीसवीं सदी में भी वहां के गांव सड़क से नहीं जुड़ पाए हैं।

नाबार्ड की रिपोर्ट के मुताबिक प्रदेश के तीस फीसदी से अधिक गांवों को आज भी सड़क यानी ‘लाइफ लाइन’ का इंतजार है। स्याह हकीकत यह है कि पांच हजार से अधिक गांवों में लाइफ लाइन नहीं है। उधमसिंहनगर और हरिद्वार को छोडकर बाकी 11 जिलों की स्थिति सड़कों के मामले में खराब है। देहरादून और नैनीताल जिलों में भी पर्वतीय इलाकों में 25 फीसदी गांव सड़क से नहीं जुड़े हैं। चंपावत जिले में 60 फीसदी गांव लाइफ लाइन से दूर हैं तो सीमांत पिथौरागढ़ की स्थिति भी तकरीबन ऐसी ही है। अल्मोड़ा, बागेश्वर जिलों में 50 फीसदी तो पौड़ी जिले में 40 फीसदी गांव सड़क से दूर हैं। दूसरे जिलों के मुकाबले रुद्रप्रयाग में स्थिति जरूर थोड़ा बेहतर है। यहां 20 फीसदी गांव सड़क से दूर हैं।

दो सीमांत जिलों, चमोली और उत्तरकाशी की स्थिति कमोबेश दूसरे जिलों की तरह है। उत्तरकाशी में 45 फीसदी से अधिक तो चमोली में 35 फीसदी से ज्यादा गांवों को सड़क का इंतजार है। सड़क न होने के कारण यहां रहने वालों का जीवन मुसीबतों से भरा है। आए दिन इन गांवों से गर्भवती महिलाओं, गंभीर रूप से बीमार लोगों को डंडी-कंडी के सहारे कंधों पर लाद कर कई किलोमीटर पैदल चलने को लोग अभिशप्त हैं।

अब बात उस सरकार की जो दस किलोमीटर सड़क को पंद्रह साल में भी नहीं बना पाती, जो डंडी-कंडी के सहारे कंधों पर लदी गर्भवती महिला और बीमार बुजुर्ग को देखकर भी विचलित नहीं होती। सरकार किसी दल की भी रही हो हर सरकार रोड कनेक्टिविटी का दावा करती है, हर साल सैकड़ों करोड़ रूपये सड़कों के नाम पर खर्च होते हैं मगर दुर्भाग्य यह है कि डंडी-कंडी में लदी बीमार बुजुर्गों की तस्वीरें नहीं कम होती।

ऐसा नहीं कि सरकार को यह सब नहीं मालूम, मालूम है, मगर इस राज्य का राजनैतिक नेतृत्व स्वार्थी, कमजोर और असमर्थ रहा है। वरना ऐसा कैसे हो सकता है कि सरकार जिस सड़क को मंजूरी दे वह फाइलों में ही घूमती रहे। सरकार मजबूत इच्छाशक्ति वाली होती तो वन भूमि हस्तांतरण के नाम पर सालों-साल सड़क और अन्य विकास योजनाएं लटकी नहीं रहतीं। यह सिस्टम का नकारापन है, सरकार और जनप्रतिनिधियों की कार्यर्शली पर सवाल है कि वे महज ‘तमाशबीन’ बने हुए हैं। अगर वकाई कोई समस्या है तो सरकार नहीं तो फिर कौन निकालेगा समाधान ?

अल्मोड़ा के चैलछीना, बसंतपुर-जैंती मोटर मार्ग के प्रकरण को ही लें, पंद्रह साल में इस प्रकरण में जो कुछ हुआ वह ‘अक्षम्य’ अपराध है। क्या सरकार को इस प्रकरण में ‘जिम्मेदारों’ के खिलाफ एक्शन नहीं लेना चाहिए था ? सड़क को मंजूरी देने के बाद क्या शासन और सरकार की यह देखने की जिम्मेदारी नहीं है कि क्यों काम शुरू नहीं हो रहा है ? क्या सरकार को यह नहीं देखना चाहिए कि कौन है जो सरकारी फैसले के पूरा होने में अवरोध बन रहा है ? लेकिन सच्चाई यह है कि सरकार की प्राथमिकता में यह सडकें हैं ही नहीं। सरकार की प्राथमिकता में तो वो सड़के हैं जिनमें विधायकों की ‘हिस्सेदारी’ है।

इन सड़कों को बनाने के लिए या तो बड़ा राजनैतिक दबाव चाहिए होता है या फिर वन भूमि हस्तांतरण करने वालों की अनुकंपा। सरकार दावा करती है कि राज्य बनने के बाद तकरीबन बीस हजार किलोमीटर सड़कें बनी हैं। मतलब औसतन एक साल में एक हजार किलोमीटर सड़कों का निर्माण हुआ है। बनती होंगी हर साल हजार किलोमीटर सड़क, जिनमें सफेदपोशों, इंजीनियरों और ठेकेदारों की मिलीभगत से बड़ा खेल भी होता होगा। मगर क्या सरकार इस बात से इंकार कर सकती है कि आज भी राज्य में सबसे ज्यादा आंदोलन सड़कों को ही लेकर हैं ? सरकार को न लगता हो लेकिन लोगों को लगने लगा है कि इससे इससे तो हालात उत्तर प्रदेश में ही ठीक थे।

मौजूदा वक्त में केरोना महामारी के गांवों की ओर रुख करने से तो और खौफ पैदा हो गया है। जो गावं पक्की सड़कों से नहीं जुड़े हैं वहां जरूरत का सामान और दवाइयां तक पहुंचना मुश्किल हो रहा है। जहां सड़क नहीं है, वहां लोग खौफ के साये में हैं कि बीमार होने पार क्या करेंगे। सरकार को चाहिए कि ‘वैंटिलेटर’ पर पड़ी पहाड़ की लाइफ लाइन का इलाज करे। सालों-साल से फाइलों मे झूल रही सड़कों को धरातल पर उतारे ताकि कोई कहानी अधूरी न रहे।