पहाड़ में होगी नये नेताओं की भर्ती या बनेगा मंकीलैंड

पहाड़ में होगी नये नेताओं की भर्ती या बनेगा मंकीलैंड

– 20 साल में 20 नेता भी नहीं पैदा कर सका पहाड
– अपनी बर्बादी की दास्तां लिख रहे हैं पहाड़ के लोग

– गुणानंद जखमोला
20 वर्ष बीत गये। पहाड़ के सुदूर गांव में खड़े व्यक्ति तक विकास की एक किरण नहीं पहुंची। इस अवधि में पहाड़ के गांवों से शहर तक आने के लिए सड़कों का जाल बिछा दिया गया। आल वैदर रोड बन रही है। रेल मार्ग बन रहा है। लिंक मार्ग भी बन रहे हैं। लेकिन आज तक सरकारों ने पिछले 20 साल में पहाड़ में एक भी ऐसी सड़क नहीं बनाई जो शहर से गांव तक जाती हो।

20 वर्ष बीत गये। न शिक्षा का स्तर सुधरा, न स्वास्थ्य सेवाओं के हालात। रोजगार आज भी मनरेगा आधारित है और पहाड़ में करवा चौथ और पंजाबी गीतों की धूम है। बेरोजगार पहाड़ी खाली समय में ताश खेलते हैं और मुर्गा या बकरा मैच खेलते हैं। जीवन काटने के लिए शार्ट कट तलाशा जा रहा है। दुखद है कि, पहाड़ में पिछले 20 साल में एक भी नेता नहीं पैदा हुआ। न नये नेताओं की भर्ती हुई न जनता ने नये नेताओं की चाहत की। जनता ने नये नेताओं को नहीं पूछा, पुराने नेताओं ने जनता को नहीं पूछा।

पिछले 20 साल में पहाड़ों से नेताओं का पलायन हो गया। त्रिवेंद्र रावत, निशंक, खंडूड़ी, हरीश रावत, हरक सिंह रावत समेत अधिकांश नेताओं ने समझ लिया कि पर्वतीय लोग दोयम श्रेणी के नागरिक हैं और जब मैदानों में उनकी जीत हो रही है तो वो पहाड़ की उकाल यानी चढ़ाई क्यों चढ़ें? हमने पहाड़ की बर्बादी की दास्तां खुद लिखी है। अब पर्वतीय जिलों में ठेकेदार और दलाल हमारे भाग्यविधाता बन गये हैं। हमने अलग राज्य की जंग लड़ी और हम अपने ही राज्य में मजदूर हो गये। यानी इमारत हमने बनाई और राज बाहरी लोग कर रहे हैं।

जनता ने साफ नीयत और अच्छे लोगों को कभी वोट ही नहीं दिया। कभी कांग्रेस लहर तो कभी भाजपा लहर में जनता मदहोश डूबी रही। ठीक ऐसे जैसे शराबी नाली के पास पड़ा होता है और उसे यह चिन्ता नहीं सताती कि जमाना देख रहा है। अहित उसका हो रहा है। हमारी जनता भी ठीक ऐसी है। यदि पर्वतीय लोगों ने मंथन नहीं किया कि नये चेहरों और नये नेताओं की भर्ती करें तो 2026 के बाद नया परिसीमन होगा और पहाड़ मंकी लैंड बन जाएगा। हमारे नेता हमारे चारों धामों को हरिद्वार ले आएंगे और पहाड़ियो तुम या तो भूखे मरोगे या गुलदार तुम्हें मार डालेगा। सोचो, विचारो और तय करो करना क्या है। उम्मीद की किरण बस, घाट में चल रहे आंदोलन से आ रही है। यदि इस तरह के आंदोलन होंगे तो ही लगेगा कि पहाड़ जिंदा है। नही तो बस यूं ही जीना दोयम दर्जे की नागरिकता के साथ जिन्दगी।