समाज संघर्षों से जिंदा है और संघर्ष त्रेपन सिंह चौहान जैसी शख्सियतों से। आओ त्रेपन भाई का साथ दें….

समाज संघर्षों से जिंदा है और संघर्ष त्रेपन सिंह चौहान जैसी शख्सियतों से। आओ त्रेपन भाई का साथ दें….

– योगेश भट्ट
समाज संघर्षों से जिंदा है और संघर्ष त्रेपन सिंह चौहान जैसी शख्सियतों से। समाजिक सरोकारों को समर्पित जन संघर्षों का एक सशक्त हस्ताक्षर, जिसका पूरा जीवन समाज के लिए संघर्ष को समर्पित है। त्रेपन चौहान, जिसने पहाड़ की घास काटने वाली महिला घसियारी का समाज से असल परिचय कराया। जिसने बताया कि गांव की घास काटने वाली घसियारनें वो बेस्ट इकॉलाजिस्ट हैं, जो पहाड़ में संस्कृति और सामूहिकता को संरक्षित करती हैं। जिसने ‘घसियारी हो या मजदूर, श्रम का सम्मान हो भरपूर’ नारा देते हुए घसियारी प्रतियोगिता की शुरूआत की। त्रेपन चौहान, जिन्होंने ‘यमुना’ और ‘हे ब्वारी’ जैसे उपन्यासों के जरिये उत्तराखंड के परिवेश, उसकी समस्याओं और अलग राज्य को लेकर आम आदमी की परिकल्पनाओं से रूबरू कराया।

उनका उपन्यास यमुना, सिर्फ उपन्यास ही नहीं बल्कि पहाड़ और पहाड़ी परिवेश को समझने, जानने का एक जीवंत दस्तावेज है। उत्तराखंड आंदोलन के दौर में ‘आज दो, अभी दो’ के नारे से अलग ‘कैसा हो उत्तराखंड’ का सवाल भी इसी उपन्यास के जरिये समाज में लाया गया।चिपको आंदोलन से संघर्ष की राह पकड़ने वाले त्रेपन राज्य आंदोलन से लेकर हर उस आंदोलन में शरीक रहे जो सामाजिक सरोकारों के लिए रहा। जनसंघर्षों और सामाजिक आंदोलनों में सिर्फ भागेदारी ही नहीं की उनका नेतृत्व भी किया और दिशा भी दी।

सूचना अधिकार का आंदोलन रहा हो या बांध विस्थापितों के पुनर्वास का मुद्दा, भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई रही हो या नशे के खिलाफ मुहिम, त्रेपन हर आंदोलन में चेतना की अलख जगाते रहे। चेतना आंदोलन के जरिए श्रम को सम्मान दिलाने की बड़ी पहल भी उनकी ही रही। उत्तराखंड में दैनिक वेतनभोगियों की पहली यूनियन बनाने का श्रेय भी उन्हीं को जाता है। वह सिर्फ सामजिक कार्यकर्ता, चिंतक या लेखक ही नहीं, बल्कि समाज सुधारक भी रहे हैं।

चेतना आंदोलन के प्रणेता त्रेपन चौहान ने दूरस्थ क्षेत्र में चेतना स्कूल की स्थापना भी को तो ग्रामीणों को अपने संसाधनों का इस्तेमाल करने के प्रेरित भी किया। उन्होंने स्थानीय ग्रामीणों की कंपनी के जरिए जल विद्युत परियोजना तैयार के लिए प्रेरित किया। त्रेपन चौहान की संघर्षयात्रा अपने आप में एक दस्तावेज है। दुर्भाग्य यह है कि संघर्षों का यह राही लंबे समय से जीवन संघर्ष में घिरा है। एक ऐसा असाध्य रोग इस संघर्षों के प्रणेता को घेरे हुए है जो धीरे-धीरे उनके शरीर के अंगों को प्रभावित कर रहा है।

त्रेपन चौहान के हाथ, पैर पूरी तरह काम करना बंद कर चुके हैं। इस शख्सियत की जीवटता देखिए, असाध्य न्यूरोलोजिकल रोग से घिरे होने के बावजूद लेखन कार्य नहीं रोका। लेखन के जरिये निरंतर संघर्ष जारी रखा। जब हाथों ने काम करना बंद किया तो उन्होंने बोलकर लिखना शुरू किया। जब बोलने की क्षमता भी नहीं रही तो आंखों की पुतलियों के सहारे लिखने वाले साफ्टवेयर के जरिये अपने पांचवे उपन्यास को पूरा करने की कोशिश में जुट गए।

बीमारी में गंभीर रूप से घिरे चार साल हो चुके हैं, उनके इस जीवन संघर्ष में उनकी पत्नी और दो बच्चे उनके हमराह बने हुए हैं, जिन्हें हिम्मत और भरोसे की दरकार है। कुछ मित्रों का भी लगातार उन्हें सहयोग मिलता रहा है, मगर सरकार या उनके नुमाइंदों ने कभी उनकी सुध नहीं ली। संघर्षों का यह जीवंत ‘दस्तावेज’ आज संकट में है। हालत गंभीर हैं, उन्हें आईसीयू में भर्ती किया गया है। सरकार और सरकारी नुमाइंदो को भले ही त्रेपन चौहान से कोई सरोकार न हो मगर समाज को है। आज तक त्रेपन ने समाज को दिया है आज समाज की बारी है। सनद रहे, जीवटता की ऐसी जीवंत मिसालें ही तो उत्तराखंड की ताकत हैं।

तमाम विपरीत परिस्थतियों के बावजूद त्रेपन चौहान जैसी मिसालें उठने और आगे बढ़ने का हौसला देती हैं। संघर्ष की यह प्रेरणा निरंतर बनी रहे इसलिए जरूरी है कि समाज इस कठिन वक्त में त्रेपन चौहान के साथ समाज मजबूती से खड़ा रहे। आइए, समाज के एक जिम्मेदार नागरिक की भूमिका अदा करें, अपने दम पर त्रेपन चौहान के परिवार को भरोसा दें।

सुधी साथी इस लिंक पर जाकर सहयोग कर सकते हैं।
https://milaap.org/fundraisers/support-trepan-singh-chauhan?fbclid=IwAR2QpZZkerEyYpZWnOpdpSsiOsRm49aSo-eJ0ytdJZZDSYAm4yTTCdzbeS0