संपादकीय: लोकतंत्र में चुनौतियों से निपटने का समय अब नजदीक

लोकतंत्र में चुनौतियों से निपटने का समय अब नजदीक

 

– सियासत में सिस्टम हो चुका खत्म लेकिन सिस्टम में सियासत ने पसार लिए अपने पांव
– लोकतंत्र की प्रक्रियाओं और संस्थानों को मजबूत करने से ही हो सकती है लोकतंत्र की जड़े मजबूत
– देश पहुंचा आर्थिक विकास दर में 44 साल पीछे

वरिष्ठ पत्रकार- सलीम रज़ा
आज हम सब एक स्वस्थ लोकतंत्र की कामना करते हैं और ये ही चाहते हैं कि, हमारे देश का लोकतंत्र मजबूत और प्रभावशाली हो और होना भी चाहिए, लेकिन आज जो कुछ भी चल रहा है क्या वो एक स्वस्थ लोकतंत्र का परिचायक कहा जा सकता है। लोकतंत्र में सभी को संवैधानिक तरीके से अपनी बात कहने का हक है लेकिन संवैधानिक तरीका कैसा हो जब देश में संविधान का ही मजाक बनाया जा रहा हो। लोकतंत्र सही मायनों में उसे कहते हैं जिसके अन्दर की जीवन शैली तीन स्तम्भों पर निर्भर करती है। जिनमें आजादी, समाज के सभी वर्गों या व्यक्तियों में आर्थिक और सामाजिक स्तर पर बराबरी का हक हो इसके साथ बन्धुत्व की भावना हो। संविधान निर्मााता बाबा भीम राव अंबेडकर का लोकतंत्र के बारे में क्या कहना है, ‘‘ लोकतंत्र, मंहगी और समय बर्बाद करने वाली खूबियों के साथ सिर्फ भ्रमित करने का एक तरीका है जिसमें जनता को विश्वास दिलाया जाता है कि, वो ही शासक है। लेकिन सत्ता कुछ गिने-चुने लोगों के हाथों में ही होती है’’ यानि ये बात साफ हो चुकी कि लोकतंत्र शासक के हाथों की कठपुतली है वो उसे जिधर नचायेगी उधर नाचेगी जिसे नहीं नाचना वहीं शोर तो होना ही है।

मैं जब दसवीं क्लास में पढ़ता था तब भी लोगों के मुह सुना था कि, लोकतंत्र खतरे में हैं। सही मायनों में मुझे ये समझ नहीं आया कि लोकतंत्र किससे खतरे में हैं। ये दौर स्व प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी का था। जिन्हें लोगों ने तानाशाह की संज्ञा दी थी। उससे पीछे जाना चाहूंगा जब मैं शायद पांचवी कक्षा में था उस वक्त गली-गली एक नारा लगा था और उसमें मैं भी शामिल था वो नारा था ‘‘ खा गई शक्कर पी गई तेल,ये देखो इन्दिरा का खेल’’ शायद उस वक्त भारत देश को आजा़ाद हुये दो दशक से कुछ ज्यादा ही हुये होंगे तब शायद भारत देश में इतने संसाधन नहीं होंगे और भारत आर्थिक तौर से पिछड़ा हुआ होगा। लोकतंत्रीय प्रणाली चरमरा रही होगी और लोकतंत्र में असंतुष्ट ज्यादा थे शायद तभी ये बात सामने आयी कि लोकतंत्र खतरे में है। लेकिन आज 71 साल बाद भी ये बात सामने आ रही है कि, लोकतंत्र खतरे में है तो सवाल उठता है कि, लोकतंत्र खतरे में किससे और कैसे है? लेकिन मैं जहां तक देखता हूं तो लगता है कि जो लोग चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे हैं कि, लोकतंत्र खतरे में है तो कहीं न कहीं इसके पीछे एक सच्चाई है। जिसे दबाया जा रहा है। भले ही इसे एक पक्ष के लोग दूसरे परिदृश्य को सामने लाकर ‘नक्कार खाने में तूती की आवाज’ बनाने में लगे हों ये सही है कि, सियासत में सिस्टम खत्म हो चुका है। लेकिन सिस्टम में सियासत ने अपने पांव पसार लिए है। आज लोग देख ही रहे हैं कि, अब भारत की सियासत स्वार्थ हित साधने में इतनी आतुर हो चुकी है कि उसने समाज और देश हित को तिलांजलि दे दी है।

आपको नहीं लगता कि, आज के दौर में सारी राजनीतिक पार्टिया प्राचीन शासन प्रणाली के प्लेटफार्म पर दौड़ रही हैं। जिसे कभी निरंकुश शासन प्रणाली कहकर संबोधित किया गया था आखिर क्यों उस प्रणाली को अपनाने के लिए मजबूर हैं। फिर भला कैसे मौजूदा हालात देश के हित में कहे जा सकते हैं। दर असल लोकतंत्र में ऐसे फैसलों की संख्या कम ही रहनी चाहिए जिसे लोकतांत्रिक प्रक्रिया से हट कर लेने को मजबूर न होना पड़े। ये एक तरह की चुनौती है। यह हर लोकतंत्र के सामने आती भी है। लिहाजा लोकतंत्र की प्रक्रियाओं और संस्थानों को मजबूत करने से ही लोकतंत्र की जड़े मजबूत हो सकती हैं और लोगों को भी लोकतंत्र से अपनी अपेक्षाओं के बारे में सही पता चलता है। यहां एक बात कहना सही समझता हूं कि, अलग-अलग समाज के लोगों की लोकतंत्र से अलग-अलग अपेक्षायें होती हैं, आज हमारे देश में राजनीति की परिभाषा ही बदल गई है। अब आप किसी मुद्दे पर सरकार का ध्यान आकर्षित करते हैं तो हिन्दु-मुसलमान, आप रोजगार की बात सरकार से करते हैं तो धार्मिक रंग, आप मंहगाई की बात करते हो तो धारा 370 बच्चे अस्पतालों में मर रहे हैं सरकार नागरिक संशोधन कानून की रैलियां कर रही है। फिर लोकतंत्र और लोकतांत्रिक व्यवस्था का रोना-धोना कैसा? अब आप देखिये 7 दशक से ज्यादा इस लोकतंत्र को गुजर गया लेकिन वो कौन सा पैरामीटर होगा जिससे ये बताया जा सके कि भारत का लोकतंत्र कितना कामयाब हुआ ।

 

आप नजर दौड़ाइये तो आपको सोचने पर मजबूर होना पड़ेगा कि, हमारा देश विकास के किस पायदान पर खड़ा है। देश की सामाजिक और आर्थिक दशा कैसी है, और देश खुशहाल कितना है? क्या हमारे देश से गरीबी, शिक्षा, साम्प्रदायिकता, जातिवाद, लैंगिक भेदभाव, चिकित्सा स्वास्थ जैसी समस्याओं के साथ सामाजिक व आर्थिक असमानताओं को दूर किया जा सका है। इस ओर सरकार का क्या रूख है? मेरी समझ से सरकार इन सभी मोर्चों पर विफल ही नज़र आई है। अगर हम संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम की रिपोर्ट का अवलोकन करें तो पायेंगे कि भारत की एक बड़ी आबादी अभी भी सवास्थ, पोषण, स्कूली शिक्षा और स्वच्छता से महरूम है। वहीं विश्व असमानता की जारी रिपोर्ट के मुताबिक भारत की राष्ट्रीय आय पर 22 फीसद हिस्से पर सिर्फ एक फीसद लोगों का ही कब्जा है। इस असमानता में उतरोत्तर वृद्धि हो रही है। आक्सफेम के अनुसार भारत के इस एक फीसद समुह ने देश के 73 फीसद धन पर अपना कब्जा जमाया हुआ है।

भारत में लैंगिक भोदभाव भी बड़ी समस्या बनकर उभरी है। विश्व आर्थिक फोरम के जैन्डर गैप इन्डैक्स के आंकड़ों के मुताबिक भारत को 108 वां स्थान हासिल है। इसके मुकाबले अगर तेजी के साथ भारत ने किसी बात में उछाल लगाई है तो वो है साम्प्रदायिकता, क्षेत्रवाद और कट्टरवाद जिनको मौजूदा समय में प्राश्रय मिला हुआ है। फिर इसमें कोई शक नहीं है कि, ऐसे मौजूदा हालात एक स्वस्थ लोकतंत्र और उसकी कामयाबी के रास्ते में रोढ़ा नहीं बन रहे हैं। बहरहाल देश बुरे दौर से गुजर रहा है देश में चिकित्सा स्वास्थ, रोजगार, शिक्षा, महंगाई, बेरोजगारी चरम पर है, देश आर्थिक विकास दर में 44 साल पीछे पहुंच गया है। सारी समस्याओं का समाधान धर्म और साम्प्रदायिक रंग नहीं हो सकते आप नींद से जागिए और बचाईये इस लोकतंत्र को जहां पर अभी कुछ बाकी है। तो आपको अपनी आवाज उठाने की आजादी बाकी है। अगर ऐसा ही सही मानते हैं तो न लोकतंत्र रहेगा न आवाज।