सम्पादकीय: पहरे में पत्रकारिता और जंजीरों में जकड़ा पत्रकार

पहरे में पत्रकारिता और जंजीरों में जकड़ा पत्रकार

 

– पत्रकार अपने हक को यूं ही भटकता रहेगा और पत्रकारिता अपने आस्तित्व को सिसकेगी….
– कहते हैं जरूरत की कोख से निकला हुआ शब्द है ईजाद….
– अपने जीवन को गुलाबी बनाने के लिए खोजी पत्रकारिता के ईजाद ने बनाया एक बाजार….
– निहित स्वार्थों के चलते मीडिया उत्तल या अवतल दर्पण की तरह करने लगी काम….

वरिष्ठ पत्रकार- सलीम रज़ा….
देहरादून। सर्वप्रथम सभी पत्रकार बन्धुओं को जो पत्रकारिता को शौकिया, जुनून और फर्ज के तौर पर कर रहे हैं। प्रेस या अखबार और इलैक्ट्रानिक मीडिया प्रजातंत्रीय शासन के तहत आजादी से अपना काम करते हैं, लेकिन सवाल ये उठता है कि, क्या प्रेस पूरी तरह से आजाद हो सकती है?इसका जवाब शायद देश के सर्वोच्च पदों पर बैठे लोगों से पूछा जाये तो वो भी बगलें झांकने लगेंगे, वो अपनी राय देने में हिचकिचायेंगे जरूर, उनके मुंह से न तो हां निकलेगी और न ही वो नहीं कर पायेंगे। कहने को तो सोचने-विचार करने और चिंतन करने के लिए सब स्वतंत्र है। लेकिन उन विचारों की अभिव्यक्ति करने की आजादी नितश्चित रूप से कुछ सीमाओं के दायरे में बंधी हुई है। प्रेस की आजादी एक प्रकार से विशेषाधिकार है। इसका सही तरह से इस्तेमाल करने के लिए बहुत ही विवेक और धैर्य के साथ व्यवहार कुशलता की जरूरत होती है। प्रेस आयेग ने भारत में प्रेस की आजादी और उनकी हिफाजत के साथ पत्रकारों में ऊंचे विचारों को कायम करने के मकसद से प्रेस परिषद की कल्पना की थी, और जुलाई 1966 में परिषद की स्थापना की गई, फिर 16 नवम्बर 1966 से परिषद ने विधिमान्य तरीके से अपना विधिवत काम करना शुरू कर दिया था।

 

आज पत्रकारिता का क्षेत्र बहुत व्यापक हो गया है। पत्रकारिता ही एक ऐसी विधा है, तो शिक्षाप्रद, सूचनात्मक और मनोरंजन से भरपूर चीजे आम जनता तक पहुंचाने में एक सेतु का काम करती है। हम आप सभी जानते हैं कि, पत्रकारिता के अन्दर तथ्यपरकता होनी जरूरी है, लेकिन तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर, मिर्च-मसाला लगाकर सनसनी फैला देने की आदत आज की पत्रकारिता में नजर आने लगी है। अक्सर ऐसा देखा जाता है कि, पत्रकारिता में पक्ष्पात और असंतुलन की अधिकता बहुत ज्यादा है। जिसमें स्वार्थ साफ झलकता है। आज के युग और आधुनिक पत्रकारिता में विचारों पर आधारित समाचार पत्रों की बाढ़ सी आ गई है।जिसकी वजह से पत्रकारिता में एक नाजुक और अस्वस्थ प्रवृति ईजाद हुई है। कहा जाता है कि, समाचार विचारों की जननी है। जिसका अभिवादन जरूर होना चाहिए, लेकिन विचारों पर आधारित समाचार एक अभिशाप की तरह है। मैंने सुना-पढ़ा है कि, समतल, उत्तल और अवतल भी कुछ होता है, इसको मैं सीधे और सरल तरीके से आपके सामने रखता हूँ। मीडिया समाज का दर्पण है, और दर्पण का काम समतल दर्पण की तरह काम करना होता है, जिससे वो समाज की सच्ची बातों को उजागर कर समाज के सामने लाने में अपनी भूमिका निभाता है, लेकिन अक्सर देखा गया है कि, अपने निहित स्वार्थों के चलते मीडिया उत्तल या अवतल दर्पण की तरह काम करने लगती है। जिससे हमें समाज की उल्टी तस्वीर दिखलाई जाती है, जो अकाल्पनिक, और विकृत तस्वीर का रूप लेकर समाज के वर्ग विशेष, धर्म विशेष पर चोट पहुंचाकर सनसनी फैलाने का काम करती है।

 

मुझे कहने में तो अच्छा नहीं लग रहा है, लेकिन अपने 25 साल के सफर में मैंने ये महसूस किया कि, वो किस श्रेणी के लोग हैं जो कल कहां और आज कहां हैं। शायद ऐसे लोगों की जरूरतें और महत्वाकांक्षायें ज्यादा होती है, और अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए ये विचार मंथन करते हैं। कहते हैं जरूरत की कोख से निकला हुआ शब्द ईजाद है। और अपने जीवन को गुलाबी बनाने के लिए खोजी पत्रकारिता के ईजाद ने एक बाजार बनाया जहां ये लोग नीली-पीली और भ्रामक खबरों से कैश करने की जुगत में लग जाते हैं। ऐसीे ही खबरों का चलन बढ़ता जा रहा है।जिससे पत्रकारिता की विश्वसनीयता और पत्रकार की मंशा दोनों ही सस्पैक्टेड हो गईं। दरअसल आज का जो दौर चल रहा है। उसमें देखा जा रहा है कि, पत्रकार अलग-अलग धड़ों में बंटकर राजनीतिक दलों के साथ जुड़ गये हैं। जिससे उनकी विचारधारा चाटुकारिता में बदल कर रह गई, अब समाज को वो तस्वीर दिखाई जाती है। जो जनता का माइन्ड डायवर्ट करने में सत्तासीन सरकार का सहयोग करती है।जिसके नीचे दबकर वो सारे सच दफन हो जाते हैं। जो समाज को मजबूती और दिशा देने में सहायक होते हैं।

 

बहरहाल, पत्रकारिता एक मिशन है लेकिन कितना दुर्भाग्य है कि, जब हम आजाद हुवे तो पत्रकारिता के मापदण्ड ही भूल गये। अब पत्रकारिता मिशन न होकर प्रोडक्शन हाउस में बदल गई। कभी-कभी ये देखने को मिलता है कि, पत्रकारिता जब मिशन के तौर पर भ्रष्टाचार पर प्रहार करने लगती है, तब उनकी मंशा पर भी शक और गहरा जाता है कि, आखिर समन्वय में कमी होने की वजह क्या है? आज कुछ ऐसे हालात पैदा हो गये जिसने पत्रकार को गुलाम और पत्रकारिता को दलाल की संज्ञा देकर उनकी आजादी पर पहरा बैठा दिया गया। साफ है जब भी दलगत पत्रकारिता होगी तब-तब प्रेस की आजादी का चीरहरण होता रहेगा, पत्रकार अपने हक को यूं ही भटकता रहेगा और पत्रकारिता अपने आस्तित्व को सिसकेगी। मुझे ये कहने में तकलीफ भी हो रही है कि, समाचार पत्रों या न्यूज चैनलों का सवामित्व अधिकार या तो राजनीतिज्ञों के पास हैं या फिर कॉर्पोरेट के लोगों के पास, जिन्होंने पत्रकारिता को दिशाहीन बना कर रख दिया और पत्रकार को गुलाम, कभी पहले पत्रकारिता मिशन हुआ करती थी, लेकिन इन लोगों के हाथों में आने के बाद पत्रकारिता सेन्सेशन हुई और अब ये कमीशन बनकर रह गई।