पहाड़ की मरती हुई अस्मिता का युद्ध है घाट आंदोलन

पहाड़ की मरती हुई अस्मिता का युद्ध है घाट आंदोलन

– अपनी माटी और थाती के लिए नहीं धड़कता अब हमारा दिल
– नंदप्रयाग-घाट के ग्रामीणों के समर्थन में नहीं उठ रही आवाज
– क्या हम संवेदनहीन हो गये या स्वार्थ के खानों में कैद हैं?

– गुणानंद जखमोला
कभी चमोली के रैणी गांव से पनपा चिपको आंदोलन पर्यावरण आंदोलन का पर्याय बन गया था और उसकी विश्व में गूंज हो गयी थी। इधर, घाट में एक अदद सड़क की मांग को लेकर दो महीने से जनांदोलन चल रहा है। 54 ग्राम सभाओं के 70 हजार लोग सड़क को डेढ़ लेन करने की मांग कर रहे हैं। कड़ाके की ठंड में धरना दिया जा रहा है, रैलियां निकल रही है। 1994 के राज्य आंदोलन के बाद इतनी बड़ी तादात में ग्रामीण महिलाएं सड़क पर उतरी हैं। लेकिन प्रदेश में कहीं कोई संस्था, संगठन या राजनीतिक दल इस आंदोलन को सपोर्ट नहीं कर रहा है।

इस बीच सीएम त्रिवेंद्र धड़ाधड़ घोषणाएं कर रहे हैं। कहीं सड़कें डबल लेन करने की बात होती है तो कहीं संपर्क मार्ग बनाए जा रहे हैं। प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना की रकम के सहारे त्रिवेन्द्र अपनी नाव अगले साल होने वाले चुनाव में खेना चाहते हैं। जबकि जानते है कि पीएमएसजीवाई की योजनों में आकंठ भ्रष्टाचार है। दुर्मी में सीएम त्रिवेंद्र घोषणाओं के आधार पर सम्मान लेने तो पहुंच जाते हैं, लेकिन सड़क की मांग को लेकर भूखहड़ताल पर बैठे लोगों के समर्थन के लिए शब्दो का अभाव है। पूर्व सीएम हरीश रावत रोज नई नौटंकी कर रहे हैं, लेकिन अपनी घोषणा को साकार करने के लिए महज एक घंटे का मौन व्रत कर इतिश्री कर दी।

पर्यावरण के नाम पर पुरस्कार पाने वाले आल वेदर रोड के 25 हजार पेड़ों की तुलना में 56 हजार पेड़ कटने पर अपने घरों में दुबके हुए हैं। उन्हें भय सता रहा है कि, यदि कुछ बोले तो पुरस्कार छीन न लिया जाए और वो लोग भी चुप हैं जो विकास की दुहाई देतेे नहीं थकते। हम कई बार कह चुके है कि, हमने पहाड़ में सड़कों और पुलों का जाल बिछा दिया है, लेकिन ये सभी सड़कें गांवों को शहर से जोड़ती हैं, लेकिन पिछले 20 साल में एक भी ऐसी सड़क नहीं बनी जो शहरों को गांव से जोड़ती हों। विकास के नाम पर इन सड़कों के रास्ते या तो पलायन हुआ या सीमांत गांवों तक चंडीगढ़ मार्का घटिया शराब पहुंची। विकास तो आज भी उतना ही दूर है जितना यूपी के जमाने में लखनऊ था।

घाट आंदोलन पहाड़ की मरती हुई अस्मिता का युद्ध है। यहां के ग्रामीण पहाड़ को आबाद करने की आखिरी कोशिश कर रहे हैं। यदि इस आंदोलन में भी जनसहभागिता नहीं हुई तो हमारा पहाड़ बेमौत मर जाएगा। पहाड़ के किसी भी कोने पर उठने वाली जन आवाज को यूंही दबा दिया जाएगा और हम अपने ही राज्य में सौतेले नागरिक बन जाएंगे।