कोरोना बनाम सियासी शतरंज
– केंद्र को देश में पूर्ण लॉकडाउन करने से पहले लेनी चाहिए थी राज्यों के मुख्यमंत्री से सलाह
– संपादकीय
लॉकडाउन में अपने घरों में सुरक्षित रहने के लिए सरकार के आदेशों को पुलिस ने भी मनमाने तरीके से लिया ऐसे वाक्य सामने आए है। हिजाब पति पत्नी और बच्चा दो पहिया वाहन पर सवार होकर डॉक्टर के यहां जा रहा था बीच रास्ते में पुलिस ने बर्बरता पूर्वक लाठियां बरसाई जो किसी तरह से सही नहीं है। यहां तक कि महिलाओं पर भी पुलिस ने लाठियां बरसाईं इसे पुलिस का अमानवीय व्यवहार कहा जा सकता है। लेकिन फिर भी देश का नागरिक सड़कों पर उतर कर अपने-अपने घरों की तरफ चलने लगा है। यहां पर यह बात उल्लेखनीय है कि, जिस तरह से लॉकडाउन दो तीन चार और पांच में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा राज्यों के मुख्यमंत्रियों से लॉकडाउन बढ़ाए जाने के संदर्भ में राय मांगी क्या लॉकडाउन करने से पहले राज्यों के मुख्यमंत्रियों से प्रधानमंत्री जी ने मशवरा किया था। अगर मशवरा किया गया होता तो छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री का वह बयान जिसमें उन्होंने कहा था कि, पूरी तरह से बंद करने का अधिकार राज्य सरकार को है।
इसलिए केंद्र सरकार को देश में पूर्ण लॉकडाउन करने से पहले राज्यों के मुख्यमंत्री से सलाह लेनी चाहिए थी। उनका कहना था कि, यह प्रधानमंत्री की एकतरफा घोषणा कहीं जा सकती है। अपने आदेशों से गरीब, प्रवासी, श्रमिकों और उनके परिवारों पर पड़ने वाले प्रभाव का प्रधानमंत्री को अनुमान नहीं था। जिसमें वह नाकाम रहे। यह उनकी देश के प्रति लापरवाही को दर्शाता है। जिसके लिए केंद्र सरकार और उसके मुखिया पूर्ण रूप से दोषी हैं। अब सरकार का जख्मों पर मरहम लगाने का खेल भी देखिए की श्रम मंत्रालय ने सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को कल्याण योजना के तहत उपकर के रूप में 52 हजार करोड़ रुपए निकाल कर मार्च क्षेत्रों के तकरीबन 3.30 करोड़ पंजीकृत श्रमिकों के खाते में डालने के निर्देश दिए थे।कंप्लीट सवाल यह है कि, लाखों श्रमिक पंजीकृत नहीं है। ऐसे में इस राहत राशि के लिए पात्र नहीं है। अर्थशास्त्रियों का अनुमान है कि, अधिकतर उपाय लॉकडाउन के बाद प्रभावी होंगे यदि लोगों तक आपातकालीन राहत नहीं पहुंचाई गई तो लाखों लोग भूखे ही दम तोड़ देंगे।
इस वैश्विक महामारी पर सियासत भी खूब चली जा रही है। तो दूसरी तरफ अपने-अपने घर वापस हो रहे प्रवासी श्रमिकों के स्वास्थ्य के प्रति राज्य सरकारें भी उदासीन है। उनके स्वास्थ्य परीक्षण पर भी ध्यान नहीं दिया जा रहा है। इसके चलते ग्रामीण क्षेत्रों में भी इस महामारी के फैलने के पूरे आसार बने हुए हैं। एक ओर वैज्ञानिक डॉक्टर और स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि, भारत ने उपयुक्त कदम उठाया है। लेकिन सवाल यह भी उठता है कि, किस कीमत पर यह कहने में जरा भी हिचक नहीं है। भारतीय अर्थव्यवस्था पहले से ही चरमराई हुई है। ऐसे हालात में भारतीय अर्थव्यवस्था को करारा झटका लगा है। साथ ही जनता में नाराजगी सरकार के उठाए गए इस कदम से नहीं है। बल्कि सरकार के इस फैसले से है जिससे गरीबी और भुखमरी से लोगों की जान चली जाए। जिस का खतरा बना हुआ है। वहीं सड़कों पर पैदल चलते प्रवासी श्रमिकों का कहना है कि, जिस तरह से सरकार ने हमारे प्रति कोई ध्यान नहीं दिया अब उन्हें यह महसूस होने लगा है कि, हम कोरोनावायरस से तो बाद में मरेंगे उससे पहले तो हम भूख से ही दम तोड़ देंगे।
यहां पर एक प्रश्न खड़ा हो जाता है कि, कई ऐसे धार्मिक आयोजन है जिसके लिए केंद्र सरकार से अच्छा खासा बजट पास होता है। जिस तरह से कांवड़ यात्रा चलाई जाती है। उसमें यात्रियों के चलने के लिए फुटपाथ और खाने की व्यवस्था होती है। जिसमें डॉक्टर से लेकर एंबुलेंस तक होती है। फिर इन सड़कों पर चलने वाले प्रवासी अकेले भटकते भूखे प्यासे क्यों सरकारों को अपने वोट नजर आते हैं। क्यों ऐसे लोगों की चिता से गुजरकर हासिल किए जाते हैं। इसे सरकार का बेहद उदासीन और दुख वाला रवैया कहा जा सकता है। अब देखिए धीरे-धीरे देश को अनलॉक किया जा रहा है। कोरोना वायरस के संक्रमितों की संख्या में दिन प्रतिदिन इजाफा होता जा रहा है बावजूद इसके सरकार को चुनाव कराने की पड़ी है। हमारे देश के गृहमंत्री पूरे लॉकडाउन में कहीं भी नजर नहीं आए लेकिन बिहार और बंगाल के चुनाव के लिए वर्चुअल रैली कर रहे हैं। जो कि बेहद शर्मनाक है।
अब सवाल यह उठता है कि, लॉकडाउन के सामने आए अनचाहे नतीजों के बाद क्या सरकार के पास कोई ऐसी कार्य योजना है जिससे इनके दर्द को कम किया जा सके? क्या सरकार जरूरतमंद लोगों के हाथों में नकद धन के रूप में कुछ देगी? यह कितना बड़ा उलटफेर है। मध्यवर्ग की बीमारी कोविड-19 इसका भारत में प्रवेश विदेश यात्राओं के गए लोगों के जरिए हुआ और उसका खामियाजा गरीब को भुगतना पड़ रहा है। जिस तरह से गरीबों की दुर्दशा करी गई, उसे भुलाया नहीं जा सकता। क्या यह शर्मनाक नहीं है कि जिस केमिकल से बसों को सैनिटाइज किया जा रहा है, उसी केमिकल से गरीबों और प्रवासी मजदूरों को सैनिटाइज किया जा रहा है। यह वह गरीब है जिनके पास दूसरों के घर मजदूरी करके पैसे कमाने के अलावा अपने घर से बैठकर पैसा लगाकर काम करने का विकल्प नहीं है। आप खुद देखिए कि गरीबों के बच्चों की शिक्षा बाधित है।
मध्यमवर्ग और अमीरों के बच्चे ऑनलाइन शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं। इस बात में कोई शक नहीं है, घनी आबादी वाले भारत में गरीबों के लिए सोशल डिस्टेंसिंग में रहना एक सपने के बराबर है। हालांकि अपने साप्ताहिक संबोधन में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस बात को भी स्वीकारा था। पूर्ण बंदी की मार सबसे ज्यादा गरीबों पर ही पड़ी है। लेकिन उन्होंने यह भी कहा था इसके अलावा और कोई दूसरा रास्ता भी नहीं था। भले ही विशेषज्ञों की राय प्रधानमंत्री के पक्ष में हो लेकिन आवश्यकता के नाम पर देश के राज्य मार्गों पर इस तरह के प्रवासी मजदूरों के हालात सामने आए। दूसरी ओर जिस तरह से रेलवे ट्रैक पर पैदल चल रहे श्रमिकों को एक मालगाड़ी द्वारा रौंद दिया जाता है। जिसमें कई लोगों की जानें गई ऐसे संकट में सरकार के इस अनुचित और अविवेक पूर्ण फैसले को माफ नहीं किया जा सकता।
मैंने स्वयं इस लॉकडाउन की अवधि में जो कुछ भी देखा शायद इस त्रासदी को मैं कभी भूल भी पाऊं। एक तरफ पुलिस का बर्बरता पूर्ण रवैया था तो वहीं दूसरी तरफ पुलिस ने गरीब बेसहारा और श्रमिकों की मदद करके खाकी पर लगे दाग को धोने की भरपूर कोशिश भी की थी। लेकिन सरकार का यह विवेकपूर्ण फैसला गरीब परिवारों को हमेशा याद रहेगा। जिन्होंने इस त्रासदी में अपने परिवार के सदस्यों को खो दिया था। मुझे इस बात को कहने में जरा भी संकोच नहीं है। जिस देश की बड़ी आबादी गोश्त कमाती और खाती है। इतनी बड़ी आबादी को बगैर किसी तैयारी के कई हफ्तों तक अपने घरों में कैद हो जाने के फरमान सुना देने के फैसले से हुए नुकसान को कम करने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों में आपसी तालमेल के साथ काम करने की जरूरत है।
विश्व बैंक को भी इस बात का अंदेशा लग रहा है। कोरोना वायरस लाखों लोगों को गरीबी की तरफ ले जाएगा। जिनमें से ज्यादातर भारत में ही होंगे। मैं यहां कुल मिलाकर यह कहना चाहता हूँ कि,भारत में जिस तरह से कोरोनावायरस तबलीगी जमात से जोड़कर पेश किया जा रहा था और एक समुदाय विशेष को इसका दोषी माना जा रहा था, लेकिन इसी समय में ऐसे कई धार्मिक आयोजन हुए जिसमें खुलकर सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ाई गई। इसमें एक धर्म विशेष को निशाना बनाने में जिस तरह से सोशल प्लेटफॉर्म का इस्तेमाल किया गया। वह बेहद निंदनीय है। यदि कोई संस्था गलती करती है तो पूरी कौम को निशाना बनाने में परहेज करना चाहिए।