उत्तराखण्ड कांग्रेस को सर्वप्रिय नेता व मजबूत संगठन की दरकार
– गुटबाजी के चलते प्रदेश में कांग्रेस गर्त की ओर
– जाहिद अली
देहरादून। उत्तराखण्ड कांग्रेस काफी लम्बे समय से मजबूत संगठन की कमी से जूझ रही है। जिसके कारण हर चुनाव में उनका परिणाम अच्छा नहीं रहा है। निकाय चुनाव से लेकर लोकसभा चुनाव तक कांग्रेस सिर्फ इज्जत बचाने तक ही सीमित रही है। कहीं कोई कमाल कांग्रेस ने नहीं दिखाया है। कांग्रेस में कोई भी ऐसा सर्वप्रिय नेता नहीं है जो कि पार्टी की गुटबाजी से ऊपर हो। पार्टी का संगठन भी ऐसा मजबूत नहीं है कि, उसके दबाव में पार्टी से सभी नेता एक मंच पर आ सके। उत्तराखण्ड के अलग राज्य बनने के बाद कांग्रेस में जो एकता थी, वह एकता वर्ष 2002 में कांग्रेस के सत्ता में आते ही गायब हो गई। वरिष्ठ कांग्रेसी नेता हरीश रावत के प्रदेश अध्यक्ष रहते वर्ष 2002 में कांग्रेस ने सत्ता हासिल की लेकिन स्व० नारायण दत्त तिवारी को पैराशूट सीएम बनाकर कांग्रेस के केन्द्रीय नेतृत्व में कांग्रेस में गुटबाजी की नींव रख दी।
जिसके कारण पूरे पांच साल तक स्व. नारायण दत्त तिवारी को इस्तीफा जेब में रखकर घूमना पड़ा। हालांकि उनका व्यक्तित्व इतना बड़ा था कि, पीछे तो हर कोई उनका विरोधी करता था लेकिन जैसे ही बात उनके सामने आती तो वह खामोश हो जाता। जिसके कारण स्व. नारायण दत्त तिवारी ने पूरे पांच साल सत्ता संभाली। लेकिन जैसे ही चुनाव नजदीक आए तो उन्होंने चुनावों से किनारा कर लिया। जिसके कारण पार्टी को हार का मुंह देखना पड़ा। वर्ष 2007 से 2012 तक सत्ता से बाहर रहने के बाद भी कांग्रेस की गुटबाजी बदस्तूर जारी रही। कांग्रेस में कई गुट रहे। लेकिन जनता ने मात्र एक सीट के अन्तर से कांग्रेस को बड़ा दल बनाकर सत्ता में भेजा जिससे कांग्रेस ने सबक नहीं लिया और विजय बहुगुणा को पैराशूट मुख्यमंत्री बनाकर जिम्मेदारी सौंप दी।
इस दौरान हरीश रावत केन्द्र में मंत्री थे। लेकिन विजय बहुगुणा को हरीश रावत ने सीएम का कार्यकाल पूरा नहीं करने दिया। इस दौरान सीएम विजय बहुगुणा का प्रदेश के विकास में बहुत कम समय लगता था और अपनी कुर्सी बचाने के लिए दिल्ली दौड़ ज्यादा रहती थी। गुटबाजी के चलते एक साल 10 माह व 18 दिन बाद ही विजय बहुगुणा को कुर्सी छोड़नी पड़ी। जिसके बाद हरीश रावत ने मुख्यमंत्री की जिम्मेदारी संभाली लेकिन वहां विजय बहुगुणा ने उन्हें सुकून ने काम नहीं करने दिया। पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा ने कांग्रेस के 9 विधायकों समेत पार्टी से ही बगावत कर दी। जिसके कारण हरीश रावत की सरकार गिर गई और प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लग गया।
हालांकि कोर्ट के हस्तक्षेप से हरीश रावत दोबारा सीएम बन गये लेकिन यहां भी गुटबाजी ने उन्हें काम नहीं करने दिया। इसी गुटबाजी के चलते कांग्रसे को वर्ष 2017 के विधानसभा चुनाव में बहुत बुरी तरह हार का मुंह देखना पड़ा। कांग्रेसी विधायक सिर्फ इतने में ही सिमट गये कि उन्हें विपक्षी दल का दर्जा मिल जाए। अगर दो और कम हो जाते तो उनका विपक्षी दल का दर्जा भी चला जाता। कांग्रेस ने इससे भी सीख नहीं ली और गुटबाजी घटने के बजाए बढ़ती ही जा रही है। लगातार नए गुटों का जन्म हो रहा है। अब तो कांग्रेस में नया दौर शुरू हो गया है। बड़े-बड़े नेताओं की आलोचना कार्यकर्ता कर रहे हैं। एक व्यक्ति जिस गुट से संबंध रखता है बाकि सब उसके विरोधी है।
फिलहाल पार्टी में कोई भी ऐसा सर्वप्रिय नेता नहीं है, जो पार्टी की गुटबाजी से ऊपर हो और वह पार्टी के सभी गुटों को एक मंच पर ला सके। उत्तराखण्ड कांग्रेस एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है जहां पार्टी कार्यक्रमों में भी एक गुट के नेता दूसरे गुट के नेताओं को नीचा दिखाने से भी कोई गुरेज नहीं करते हैं। कांग्रेस में मुख्यतौर पर हरीश रावत गुट, डाॅ. इंदिरा ह्दयेश गुट, प्रदेश अध्यक्ष प्रीतम सिंह गुट व पूर्व प्रदेश अध्यक्ष किशोर उपाध्याय गुट है। इसके अलावा कुछ दूसरी पंक्ति के नेताओं के गुट भी हैं। इस लिए कांग्रेस पार्टी का संगठन भी इतना मजबूत नहीं है कि, वह पार्टी के सभी गुटों को एक मंच पर ला सके।
पार्टी संगठन इतना पाॅवर फुल नहीं है कि, जिसका खौफ दिखाकर बागीतेवरों को दबाया जा सके। इसलिए उत्तराखण्ड प्रदेश कांग्रेस को एक सर्वप्रिय नेता की जरूरत है। जिसको सब सम्मान देते हों और व पार्टी को एकजुट कर सके। साथ ही एक ऐसे मजबूत संगठन की जरूरत है। जिसका इतना दबाव हो कि, पार्टी का बिखराव खत्म किया जा सके। उत्तराखण्ड प्रदेश कांग्रेस कमेटी कुछ गिने-चुने नेताओं तक ही सीमित होकर रह गई है। प्रदेश अध्यक्ष कोई भी रहे लेकिन पदाधिकारी वो ही रहेंगे। यहां नए लोगों के लिए मौका मिलना भी आसान नहीं हो रहा है।