देहरादून। लोकसभा चुनाव का बिगुल बजते ही जहाँ सभी पार्टियां सक्रिय हो चली थी। सभी पार्टियों ने अपने प्रत्याशी घोषित कर दिये थे वहीं कांग्रेस हर बार की तरह अपने प्रत्याशी चुनने में ही व्यस्त थी क्योंकि, कांग्रेस में टिकटों को लेकर घमासान और सर फुटव्वल वाली स्तिथि यह एक आम बात हो चली है। लेकिन ताज्जुब तब होता है जब टिकटों की दावेदारी ऐसे नेता कर रहे होते है जिनका अपना कोई जनाधार नहीं है। एक ऐसे नेता जिन्हें जनता नकार चुकी है फिर भी नेता जी हार मानने को तैयार नहीं है। 2017 में जब नेता जी विधानसभा चुनाव हारे थे और उनकी पार्टी के कई विधायक चुनाव हारे थे उसके बाद भी नेता जी ने हार न मानी और 2019 के लोकसभा चुनाव में एक बार फिर से नेता जी दहाड़ लगाते हुए लोकसभा चुनाव के लिए तैयार तो हो गए पर एक संशय कहीं न कहीं उनके चेहरे से साफ झलक रहा था।
क्योंकि, काफी समय से हरिद्वार सीट से दावेदारी पेश कर रहे हरीश मीडिया में भी अपने ब्यानों से काफी चर्चित रहे। लेकिन न जाने ऐसा क्या हुआ कि प्रत्याशियों के नामों की घोषणा होते ही हरदा अपनी दावेदारी बदल गए। हरिद्वार से चुनाव लड़ने की बजाए हरीश ने नैनीताल लोकसभा से टिकट की मांग की नैनीताल लोकसभा में चुनावी जन सभाएं की डोर टू डोर जाकर के अपने पाले में मतदान की अपील की, अपने चुनावी जुमलों से जनता का ध्यान अपनी ओर लाने के ख़ूबजोर प्रयास किए। लेकिन इसे कांग्रेस का दुर्भाग्य ही कहेंगे क्योंकि, अपनी ही पार्टी के कुछ नेता अपने ही प्रत्याशी की जड़ काटने में जुटे रहते है। लगता है, हरीश के इर्द-गिर्द रहने वाले उनके सलाकार ही उन्हें ऐसी सलाह दे गए कि एक बार फिर से हरीश को करारी हार का मुँह देखना पड़ा। 2014 में जब पूरे देश भर में कोंग्रेस को करारी हार का मुहँ देखना पड़ा उस वक्त भी हार का ठीकरा कांग्रेस ने ईवीएम पर फोड़ा और इस बार फिर से करारी हार का मुँह देखने के बाद कांग्रेस एवं हरीश रावत ने हार का ठीकरा ईवीएम पर फोड़ा जिसके परिणाम यह भी रहे कि 2 दिन तक हरदा चर्चा में रहे कि वह भाजपा में शामिल होने वाले है, लेकिन बाद में भाजपाइयों ने स्पष्ट किया कि यह सिर्फ एक अफवाह है। हमें तो लगता है कि, कांग्रेस के पास बस यही एक काम रह गया है अपना नुकसान दूसरे पर थोपना। और हरीश रावत को देखने के बाद आज बस एक ही कहावत याद आती है ” खिसियाई बिल्ली खम्बा नोंचे “
एक ओर तो कांग्रेस फिर से देश एवं राज्य में अपना जनाधार बनाने की कोशिश में लगी हुई है अपनी पार्टी का अस्तित्व बनाने में कांग्रेस के आलाकमान ने कोई कसर नहीं छोडी दूसरी ओर अगर बात करें उत्तराखंड कांग्रेस की तो यहां किसी भी बड़े नेता को कांग्रेस के सत्ता में आने न आने से कोई फर्क नहीं पड़ता यहाँ तो बस हर नेता यही चाहता है कि, मुझे टिकट मिले और मैं किसी भी तरह से जीत हासिल कर लूँ। कांग्रेस में ऐसे छूटभईया नेता भरे पड़े है, जिनका अपना कोई खास जनाधार न होने के बाद भी वह मजबूत दावेदारी की गुहार लगाते हुए आखरी वक्त तक नजर आते है। 2019 लोकसभा चुनाव न लड़ने का बड़ा ढोंग जो कांग्रेसी मीडिया के सामने कर रहे थे। वही चुनाव निकट आते ही चुनावी सीट पर गुड़ लगी मक्खी की तरह चिपक जाते है। लोकसभा चुनाव से पहले ही कांग्रेस में भीतरी कलह शुरू हो गई थी। वरिष्ठ नेता अपनी अंदरूनी वर्चस्व की लड़ाई में मशगूल हो गए थे। जो टिकट मिलने के बाद खुलके जनता एवं विपक्ष के सामने दिखाई दी। हास्यपद है कि, चुनावी दौर में वरिष्ट नेता यह भूल जाते है कि, अपना वर्चस्व बचाने के चक्कर मे यह पार्टी का वर्चस्व खतरे में डाल रहे है।
अब चुनावी स्टंट पुरानी चाल हो चली है। क्योंकि, जनता को लुभाने के लिए जो लुभावने वादे यह नेता जनता से करते है। अब उसी जनता को धीरे-धीरे यह सब समझ आ गया है कि, वोट लेने से पहले यह नेता जनता के चरणों में और वोट लेने के बाद उसी जनता को अपनी शहंशाही दिखाते नजर आते है। चुनावी मोह है ही ऐसा जो कभी खत्म न होता है और न ही होगा। अपने वर्चस्व की बात हो या वंशवाद की, यह तो कांग्रेस की पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही है। यह कहना भी गलत नही होगा कि, कांग्रेस के डीएनए में वंशवाद दौड़ने लगा है। खैर यह वंशवाद नामक महामारी तो अब सभी राजनैतिक पार्टियों में देखने को मिल रहा है। भीतरी हाल तो यह है कि, अगर आप प्रदेश के मुख्यमंत्री ही क्यो न रहे हो, या अपनी दो विधानसभा सीट बेशर्मी से हारने के बाद भी नेताजी अभी तक ये नही समझ पाए कि जनता आपको पूरी तरह नकार चुकी है। पर सत्ता पाने का मोह ऐसा जो छूटे भी न छुटे। इसी मोह का परिणाम हम विधानसभा सीट पर देख चुके है। इनके स्टिंग से लेकर पार्टी के बागी हुए विधायक सब देख चुके है। कांग्रेस को भाजपा व अन्य पार्टियों से चुनाव लड़ने से पहले आपस मे चुनाव लड़ना चाहिए। क्योंकि, टिकट न मिलने पर या तो कांग्रेस के नेता बागी होकर निर्दलीय चुनाव लड़ते है और कांग्रेस के पाले में पड़ने वाले वोटों का नुकसान करते है या फिर पार्टी में ही रहकर प्रत्याशी की अंदर ही अंदर जड़ काटते है। वैसे राजनीति इसे ही कहते है।
अपना उल्लू सीधा करना कांग्रेसियों को अच्छे से आता है। क्योंकि, पुराना राजनीति एक्सपीरियंस यही होता है। अपनी ही पार्टी में कुछ नेताओं की टिकट को लेकर जो आस बनी होती है। उसी आस के लड्डू खाकर अपनो का पेट भरना कोई इन कांग्रेसी नेताओं से सीखे। लेकिन कभी-कभी ऐसा करना न खुद के हित में होता है और न ही पार्टी के। फिलहाल उत्तराखंड में काफी समय से कांग्रेस में प्रीतम गुट और हरदा गुट अपनी-अपनी नीतियों पर सक्रिय है। जो एक दूसरे को एक आँख भी नही सुहाते। सबको अपने पसन्दीदा उम्मीदवार को टिकेट दिलवाना था, जो रणनीति कहीं न कहीं सफल भी रही। इसलिए हमारा ऐसा मानना है कि, कांग्रेस को पहले आपस में एक-दूसरे से चुनाव लड़ना चाहिए बाद में विपक्ष से। कुछ बुद्विजीवियों की माने तो उत्तराखंड में कांग्रेस की भीतरी कलह ही कहीं न कहीं कांग्रेस के पतन का कारण भी बनी। पार्टी की अंदरूनी कलह और कमजोर संगठनिक व्यवस्था के चलते टिहरी लोकसभा क्षेत्र में कांग्रेस चुनाव प्रचार में भाजपा से आखरी वक्त तक काफी पिछड़ी रही। जबकि भाजपा के समर्थक व बैनर झंडे दून के शहरी क्षेत्र में खूब नजर आए। लेकिन कांग्रेस की कोई भी चुनावी गतिविधी दून के शहरी क्षेत्र में नजर नही आई। हरीश रावत के मुख्यमंत्री रहते हुए बीते विधानसभा चुनाव से पूर्व कांग्रेस के कई दिग्गज भाजपा में शामिल हो गए थे।