इलेक्ट्रोल बॉण्ड मामले में सुप्रीम कोर्ट सख्त। टाइमिंग पर सवाल, कहा….
सुप्रीम कोर्ट ने स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया को कहा है कि 21 मार्च तक वो इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़ी सब जानकारियां उपलब्ध करवाए।
इन जानकरियों में वो अल्फा-न्यूमरिक कोड भी शामिल है, जिसके मिलने से ये पता चलेगा कि किस ख़रीदार का दिया हुआ बॉन्ड, किस राजनीतिक दल ने भुनाया। अभी तक स्टेट बैंक ऑफ़ इंडिया ने जो डेटा जारी किया है, वो सिर्फ़ दो बातें बताता है।
पहली ये कि किस तारीख़ को किसने कितने रुपए के बॉन्ड ख़रीदे और दूसरी ये कि किस राजनीतिक दल ने किस तारीख़ को कितने बॉन्ड भुनाए।
लेकिन ख़रीदार का बॉन्ड किस राजनीतिक दल को मिला ये बात साफ़ नहीं है..अल्फा-न्यूमरिक कोड की जानकारी मिलने के बाद ये मिलान आसानी से किया जा सकेगा।
आखिर क्यों उठ रहे हैं सवाल
अल्फा-न्यूमरिक कोड की जानकारी आने से पहले ही एसबीआई के पहली खेप में जारी किए गए डेटा का विश्लेषण करने पर कई तरह के पैटर्न नज़र आए हैं।
कुछ ऐसे पैटर्न, जिनकी वजह से इलेक्टोरल बॉन्ड योजना को देश का अब तक का सबसे बड़ा घोटाला तक कहा जा रहा है।
अब तक उपलब्ध डेटा को ध्यान से देखें तो ऐसे कई उदाहरण दिखते हैं, जहाँ किस साल किसी प्राइवेट कंपनी पर एन्फोर्समेंट डायरेक्टोरेट (ईडी) या आयकर विभाग की छापेमारी हुई और उसके कुछ ही दिन बाद उस कंपनी ने इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदे।
ऐसे भी उदाहरण हैं, जिनमें किसी कंपनी ने इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदे और कुछ दिन बाद उस पर छापेमारी हुई और उसके बाद कंपनी ने फिर इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदे।
कुछ मामलों में ये आरोप भी हैं कि इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदने के कुछ वक़्त बाद ही किसी निजी कंपनी को कोई बड़ा सरकारी प्रोजेक्ट मिल गया।
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने 15 मार्च को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म X पर लिखा, “इलेक्टोरल बॉन्ड्स के नाम पर ‘हफ्ता वसूली सरकार’ ने दुनिया का सबसे बड़ा भ्रष्टाचार किया है।
”इसे एक आपराधिक खेल बताते हुए राहुल गांधी ने कहा कि इस खेल में “एक तरफ़ कॉन्ट्रैक्ट दिया, दूसरी तरफ़ से कट लिया” और “एक तरफ़ से रेड की, दूसरी तरफ़ से चंदा लिया.”
राहुल गांधी ने कहा कि ईडी, इनकम टैक्स और सीबीआई जैसी जांच एजेंसियां वसूली एजेंट बन कर काम कर रही हैं।
18 मार्च को कर्नाटक के मेडिकल एजुकेशन मंत्री शरण प्रकाश पाटिल ने कहा है कि ईडी और आईटी विभाग जैसी केंद्रीय एजेंसियों द्वारा छापेमारी के तुरंत बाद कई कॉर्पोरेट घरानों और व्यापारिक संस्थाओं द्वारा चुनावी बॉन्ड ख़रीदना महज़ संयोग नहीं है।
पूर्व प्राध्यापक प्रोफ़ेसर अरुण कुमार आर्थिक मामलों के जानकार हैं. उन्होंने काले धन और उसके अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले असर पर “द ब्लैक इकॉनमी इन इंडिया” नाम की किताब भी लिखी है।
इस डेटा से उभरे पैटर्न पर वे कहते हैं, “सवाल क्विड प्रो क्वो (कुछ हासिल करने के लिए कुछ देना) का उठता है. हमें पता है कि देश में हर किस्म की अवैध गतिविधियां चलती हैं।
ख़ासकर सत्तारूढ़ पार्टियां इनकम टैक्स, ईडी का इस्तेमाल करती रही हैं, लोगों को निचोड़ने के लिए. लेकिन इलेक्टोरल बॉन्ड का डेटा दिखा रहा है कि ये बहुत ज़्यादा हो गया था।
पहले भी होता था पर अब ये बहुत ज़्यादा हो गया है. जो सत्तारूढ़ पार्टी है वो इन एजेंसियों का इस्तेमाल कर के पैसा उगलवाती है और विपक्ष पर दबाव बनाने के लिए इन एजेंसियों का इस्तेमाल किया जाता है।
प्रोफ़ेसर कुमार के मुताबिक़ राज्यों में भी सत्तारूढ़ पार्टियां दबाव डाल कर पैसे उगाहती हैं लेकिन “ईडी और इनकम टैक्स केंद्र सरकार के हाथ में हैं.” वे कहते हैं, “सबसे बड़े प्रोजेक्ट भी केंद्र सरकार के हाथ में हैं. इसीलिए ये माना जा रहा है कि बीजेपी में इसका सबसे ज़्यादा दुरुपयोग किया क्यूंकि वो सत्ता में है.”
डेटा के विश्लेषण से ये भी दिख रहा है कि चुनावी बॉन्ड ख़रीदने के बाद भी कंपनियों पर रेड हुई – क्यों..
सरकार के पक्ष में एक तर्क ये दिया जा रहा है कि सरकारी एजेंसियों ने निष्पक्षता से काम किया और उन कंपनियों पर भी छापा मारने से नहीं हिचकीं, जिन्होंने इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदे थे।
प्रोफ़ेसर अरुण कुमार कहते हैं, “जिन पर भी आरोप होगा वो इसे रेशनलाइज (तर्कसंगत बनाना) तो करेंगे ही. एक तर्क ये भी हो सकता है कि बॉन्ड ख़रीदने के बाद भी अगर रेड हुई तो वो इसलिए हुई कि पार्टी इलेक्टोरल बॉन्ड के ज़रिए मिले धन से संतुष्ट नहीं थी और ज़्यादा धन चाहती थी. ये हो सकता है कि अगर किसी ने पर्याप्त मात्रा में धन नहीं दिया है तो उसे और निचोड़ेंगे और ज़्यादा पैसा निकलवा लेंगे. तो कुछ भी कहना मुश्किल है क्योंकि दोनों तरह की संभावनाएं हैं.”
प्रोफ़ेसर कुमार के मुताबिक़ अगर ये पता हो कि कौन कितने रुपए के बॉन्ड ख़रीद रहा है तो उसे निचोड़ना और आसान हो जाता है। वे कहते हैं, “अगर किसी कंपनी को दस हज़ार करोड़ रुपए का प्रोजेक्ट मिल रहा है तो आप उसमें से 8-10 फ़ीसदी निचोड़ सकते हैं. इससे ये भी पता चलता है कि नौकरशाही को पता होता है कि कौन कितना कमा रहा है और इसी जानकारी का इस्तेमाल उसे निचोड़ने में किया जाता है।
सच बाहर आना चाहिए
उत्तर प्रदेश के पूर्व पुलिस महानिदेशक विक्रम सिंह कहते हैं कि कब ईडी या आईटी रेड हुई और कब इलेक्टोरल बॉन्ड से चंदा दिया गया या चंदा देने के बाद किसी कंपनी को सरकारी एजेंसी की कार्रवाई से राहत मिली हो ये कोई भी इंटेलिजेंस एजेंसी पता लगा सकती है।
वे कहते हैं, “मेरी समझ में ये नहीं आ रहा है कि जब आईटी में डेटा मौजूद है तो क्यों सॉफ्टवेयर के ज़रिये उससे ये पता नहीं लगाया जा सकता कि क्या किसी ने रेड होने के बाद इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदे या क्या किसी के बॉन्ड ख़रीदने के बाद मामला बंद कर दिया गया और क्या मामला बंद कर देने के बाद फिर चंदा मिला.”
विक्रम सिंह कहते हैं कि ये सभी सवाल करोड़ों लोग पूछ रहे हैं. वे कहते हैं, “इसका जवाब सबको चाहिए क्यूंकि इलेक्टोरल बॉन्ड जब लाए गए थे तो पारदर्शिता की बात की गई थी… कि जो चंदा राजनीतिक दलों को दिया जाए वो पारदर्शी हो, बिना किसी दबाव के हो. ये जानने का अधिकार सबको है और जब सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ये सार्वजानिक हो जाना चाहिए तो सार्वजानिक होना चाहिए।
पूरा डेटा बिना किसी तरह से चीज़ों को छुपाते हुए सामने आना चाहिए… ऐसा नहीं होना चाहिए कि ज़रूरी बातों को छुपा लिया जाए और ग़ैर-ज़रूरी बातों को ज़ाहिर कर दिया जाए.”
विक्रम सिंह के मुताबिक़ शेल कंपनियों और उनसे जुड़े लोगों की जानकारी भी सामने आनी चाहिए. वे कहते हैं, “मूल डोनर का पता लगाया जाना चाहिए।
जब मिलीभगत की जांच की जाती है तो ज़रूरी है कि उसकी तह तक पहुंचा जाए. इस मामले में अगर जानकारी छुपाई जाती है तो वो सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बिल्कुल ख़िलाफ़ होगा.”