सल्ट उपचुनाव में उतरे पनदा के बहाने। मस्त नेता, पस्त पहाड़ और ध्वस्त सपने
– लोकतंत्र में जनता भेड़, धनवान और बलवान है हांकने वाला
– गुणानंद जखमोला
पाठकों ने सल्ट चुनाव में यूकेडी समर्थित निर्दलीय उम्मीदवार और राज्य आंदोलनकारी पन सिंह रावत यानी पन दा के बारे में पहले कभी नहीं सुना होगा। सुनते भी कैसे? जिन लोगों ने राज्य के लिए संघर्ष किया, लाठी-गोली खाई, जेल गये, अपना जीवन दांव पर लगाया, राज्य मिलने के बाद वो हाशिए पर आ गये। ठीक ऐसे जैसे कोई मजदूर एक इमारत की नींव करता है और उसमें रहने के लिए कुछ और लोग आ जाते हैं।
पन दा को शायद हम लोग कभी जान भी नहीं पाते यदि यूकेडी के उम्मीदवार का नामांकन रद्द नहीं हो जाता। अपने उम्मीदवार का नामांकन रद्द होने के बाद यूकेडी ने पान दा को समर्थन दिया, लेकिन आज तक यूकेडी के बड़े नेताओं ने पनदा के पक्ष में अब तक न तो बयान दिया है और न ही चुनावी सभा की है। सुना है कि, अब एपी जुयाल चुनाव प्रचार में जाएंगे।
दुखद है कि, यूकेडी उसी परिपाटी पर चल रही है जिस पर भाजपा और कांग्रेस चलते हैं। यानी मेहनत कोई करे और टिकट पैराशूट कंडीडेट को दे दिया जाएं। बिना यह जांचे कि उसका नाम मतदाता सूची में है या नहीं।
खैर, हमारा विषय पनदा है। 68 वर्षीय पनदा उत्तराखंड के आम आदमी का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। फटेहाल और खस्ताहाल जिंदगी बिताते हुए विरासत में मिली जिद्द, खाली जेब और इसके बावजूद कुछ कर गुजरने की चाहत।
हां, दरअसल पन दा उत्तराखंड की ज्वलंत तस्वीर है। हमारा सपनों का राज्य भी पान दा की तरह आर्थिक रूप से कमजोर और लुटा-पिटा सा है। निश्चित रूप से पन दा को चुनाव परिणाम पता होगा, लेकिन वो आग जो वो राज्य आंदोलन के दौरान सीने में जलाए बैठे थे, 20 साल बाद भी चिन्गारी के तौर पर विद्यमान रही होगी, नहीं तो वो एक बार मैदान में पस्त होने के बाद दोबारा नहीं लड़ते।
आज एक बार फिर उनका मुकाबला कांग्रेस की गंगा पंचोली और भाजपा के महेश जीना से है। दोनों नेता करोड़पति हैं और पन दा की कुल संपत्ति ही चार लाख करीब है। पता नहीं वो चुनाव प्रचार कर भी पा रहे हैं या नहीं। जो सच्चे हैं, राज्य हितैषी हैं वो पन दा की तरह फटेहाल हैं। जो राज्य आंदोलन में कहीं नहीं थे वो बड़ी-बड़ी कारों में सवार होकर शान से माइक पर लफ्फाजी परोस रहे हैं और जनता इस इंतजार में बैठी है कि बिल्ली के भाग का छींका ही टूट जाएं। किसी को दारू मुर्गा मिल जाएं तो कोई रबड़ी-जलेबी से ही काम चला लें। भला पन दा कहां से लाएं दारू और रबड़ी जलेबी।
नतीजा 2 मई को आएगा। पन दा हार जाएंगे ठीक ऐसे जैसे हर चुनाव में लोक यानी जनता हार जाती हैं और तंत्र जीत जाता है। सत्ताबल, धनबल और बाहुबल की जीत होती है और जनता मीठी जलेबी और कड़वे दारू के घूंट को याद कर एक और चुनाव के इंतजार में साल दर साल बिता देती है।