सत्य शोधक समाज की संस्थापक थीं सावित्रीबाई फुले
वरिष्ठ पत्रकार- सलीम रज़ा
आज जब हमारे देश में स्त्रियों की दशा और दिशा पर कसीदे पढ़े जाते हैं, तो अनायास उस महिला का स्मरण हो जाता है जिन्होंने नारीवादी ठोस विचारधारा की बुनियाद रखी थी। नारवादी विचारधारा की बुनियाद रखने वाली वो महिला थीं सावित्रीबाई फुले। जिन्होंने समाज की कुरितियों को देखकर उसकी मुखालफत करी और उसके समाधान के लिए रास्ते भी बनाये। ऐसी विदुषी महिला सावित्रीबाई फुले का जन्म 1831 में महाराष्ट्र के सतारा जिले के अंतर्गत गांव नयागांव में हुआ था। सावित्रीबाई फुले जिन्होंने हिन्दूधर्म, रीति रिवाजों, परम्पराओं, शूद्रों और अति शूद्रों के साथ महिलाओं के सम्मान के लिए तय शुदा किये गये स्थान को नये भारत उदय के साथ पहली मर्तबा खुले रूप से चुनौती दी थी। आप जानते हैं कि, आधुनिक भारतीय पुर्नजागरण के दो केन्द्र क्रमशः महाराष्ट्र और बंगाल रहे हैं। महाराष्ट्र के पुर्नजागरण ने हिन्दूधर्म, सामाजिक व्यवस्था और परम्पराओं को चुनौती दी तो वहीं बंगाली पुर्नजागरण मूल रूप से हिन्दू धर्म, सामाजिक व्यवस्था और परम्पराओं के दरम्यान सुधार चाहता था।
सावित्रीबाई फुले ने वर्ण-जाति व्यवस्था को तोड़ने और महिलाओं पर पुरूषों के एकाधिकार के वर्चस्व को खत्म करने के लिए अपने जीवन में बहुत संघर्ष किया था। महाराष्ट्र के पुर्नजागरण की कमान शूद्रों और महिलाओं के हाथ में थी, ग्रन्थों में भी इस बात का साफ तौर पर जिक्र है कि, स्त्री और शूद्र एक समान होते हैं। तो हिन्दू धर्म, सामाजिक व्यवस्था और परम्परा में स्त्री को यहीं तक सीमित रखा गया था। हिन्दू धर्म शास्त्रों में भी कहा गया था कि, स्त्री और शूद्रों को शिक्षा हासिल करने का अधिकार नहीं है। ये वो मान्यतायें व्यवस्था के तहत थीं जिसका पालन करना सभी वर्णों के लोगों को अनिवार्य था। इसी प्रथा को तोडने के लिए सावित्रीबाई फुले ने शूद्रों अति शूद्रों की आजादी और महिलाओं की मुक्ति के लिए अजीवन संघर्ष करते हुये अपना जीवन गुजार दिया। कितना बड़ा चैलेन्ज था कि, सावित्रीबाई फुले एक तो शूद्र परिवार में जन्मी और ऊपर से महिला थीं। लिहाजा उन्हें दोनो ही दण्ड इस वर्ण व्यवस्था के तहत जन्मजात हासिल हुये थे।
सही मायनों में ये वो दौर था जब शूद्र जाति में पैदा होने वाले लड़के को भी शिक्षा प्राप्त करने का कोई हक नहीं था। फिर उस जाति में पैदा होने वाली किसी लड़की के लिए शिक्षा हासिल करना किसी सपने के समान था। बचपन में सावित्रीबाई अपने पिता के साथ खेती के कार्य में उनका हाथा बटाया करतीं थीं, उनके बाल्यवस्था की बात है कि, कहीं से सावित्रीबाई को अंग्रेजी की किताब मिल गई जिसे खोलकर वे उसके पन्ने देख रही थीं, अब आप अन्दाजा लगा सकते हैं कि, किस कदर वर्ण व्यवस्था का डर हावी था कि, उनके पिता ने सावित्री के हाथों से छीनकर पुस्तक को बाहर फेंक दिया था। लेकिन उनके अन्दर पढ़ाई हासिल करने की जिज्ञासा हिलोरें ले रही थी, इसी को कहते हैं कि, जहां चाह वहीं राह एक बार जब वह अपनी सहेलियों के साथ बाजार गई तो उन्होंने देखा कि, कुछ ईसाई धर्म के अनुयायी विदेशी महिला और पुरूष प्रभु ईशु का गुणगान कर रहे थे वो भी वहीं रूककर देखने लगीं तभी उस समुदाय की महिला ने उनके हाथ में एक पुस्तक दे दी।
सावित्रीबाई वर्णव्यवस्था की जंजीरों में उलझी उस पुस्तक को लेने में हिचक रही थीं, फिर भी उन्होंने साहस बटोरकर उस पुस्तक को ग्रहण कर ही लिया। जब सावित्रीबाई की शादी ज्योतिराव फुले से हुई तो वो उस पुस्तक को लेकर अपने ससुराल चली गई थीं, भले ही ज्योतिराव फुले पूर्ण शिक्षित नहीं थे लेकिन थे तो वो भी इस वर्ण व्यवस्था के खिलाफ। उन्होंने सावित्रीबाई को अपने जीवन साथी होने का दायित्व निभाते हुये एक शिक्षक होने का कर्तवय भी बखूबी निभाया। उन्होंने अपने पति की देख-रेख में प्राथमिक शिक्षा ग्रहण की उसके बाद उनके अन्दर पढ़ने की लालसा और भी प्रबल हो गई। जिसके बाद उन्होंने फोरमल एजूकेशन अहमदाबाद में पूरी करने के बाद पुणे के अध्यापक प्रशिक्षण संस्थान से प्रशिक्षण प्राप्त किया था। ज्योतिराव फुले और सावित्रीबाई ने मिलकर इस वर्ण व्यवस्था पर प्रहार करते हुये 1 जनवरी 1848 को पुणे के भीड़वाड़ा में ही एक स्कूल की बुनियाद डाली थी। इस स्कूल में सावित्री बाई मुख्य अध्यापिका थीं। सबसे बड़ी बात तो ये थी कि, इनके स्कूल के द्वार सभी जातियों के लिए खुले थे। फुले दम्पति के लिए लड़कियों के लिए खोले जा रहे स्कूलो की संख्या दिनो-दिन बढ़ती ही जा रही थी। गरज ये कि चार सालों में ही इनके द्वारा स्थापित स्कूलों की संख्या 18 तक पहुंच गई थी। कितना हैरान कर देने वाली बात है कि, ये वो समया था जब ब्राह्मण वाद का परचम लहरा रहा था। ऐसे वक्त में फुले दम्पति का शिक्षा के प्रति महिलाओं को जागरूक करना और वर्ण व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठााना सीधे तौर पर ब्राह्मणवाद को चुनौती देने से कम नहीं था। इस बात में कोई दो राय नहीं है कि, ब्राह्मण वर्चस्व या एक छत्र अधिकार कह लें फुले दम्पति का ये कदम समाज पर ब्राहमणों के वर्चस्व के ताबूत में कील था।
उनके इस दुःस्साहस से पुरोहित समाज तिलमिला गया था, और उन्होंने ज्योतिराव के पिता पर दबाव बनाया कि वो अपने पुत्र और पुत्र बधू को कहें कि वो पढ़ाना त्याग दें, या फिर घर त्याग दें। ऐसे में फुले दम्पति ने घर छोड़ने का फैसला सहर्ष स्वीकार कर लिया था, फिर भी ब्राहम्णों ने उनका पीछा नहीं छोड़ा था। इतिहास गवाह है कि, ब्राहम्णों ने उनके रास्ते में व्यवधान डाले उन पर पत्थ्र के साथ गन्दगी भी डाली। लेकिन उन्होंने अपने लक्ष्य को बदस्तूर जारी रखा।इतना ही नहीं उन्होने शिक्षा के अलावा समाज में व्याप्त विधवाओ की हालत पर ध्यान दिया। जो उस समय सबसे बदत्तर दौर से गुजर रही थीं। ऐसे बदत्तर दौर से गुजरने वाली विधवा महिलाओं में सबसे ज्यादा उच्च जातियों से ताल्लुक रखती थीं, जिसमें सबसे ज्यादा ब्राहम्ण समाज की थीं। ये वो विधवायें हुआ करती थीं जिनके गर्भ में शिशु पल रहा होता था और वे विधवा हो जाती थीं। ऐसे हालात में या तो उनके सामने एक ही रास्ता था कि या तो वो आत्महत्या कर लें या फिर अपने बच्चे को जन्म देने के बाद कहीं फेंक दें।
सावित्रीबाई इस प्रथा से बेहद दुःखी हुईं और उन्होंने 1863 में बाल हत्या प्रतिबन्धक गृह की स्थापना करी जहां ऐसी विधवायें अपने बच्चे को जन्म दे सकती थीं। ऐसी विधवा महिलाओं को जागरूक करने के लिए उन्होंने जगह-जगह बाकायदा पोस्टर भी लगवाये थे जिससे विधवायें अपने समाज की थोपी गई कुरीतियों से बाहर निकलें। आज हमारी सरकारें महिलाओं के उत्थान के लिए बड़ी-बड़ी बातें करती हैं। सही मायनों में ये वो दौर था जब सामन्ती प्रथा हावी थी और ब्राहम्ण्वाद का एक छत्र अधिकार था। इस प्रथा के खौफ से निकलते हुये सावित्रीबाई ने जो प्लेटफार्म तैयार किया उसी का नतीजा है कि, आज महिलाओं को बराबरी का दर्जा है वो पुरूष के साथ कदम से कदम मिलाकर समाज में सिर उठाकर जी रही है, ये सावित्रीबाई की नारीवादी सोच की एक ठोस बुनियाद है। उन्होंने सामाजिक कुरीतियों, विधवाओं, दलितों के हक के लिए हमेशा संघर्ष किया, उन्होंने हमेशा सामाजिक चेतना की बात करी उन्होंने पहली महिला शिक्षिका होने का गौरव हासिल किया था। सावित्रीबाई फुले के लिए शायद अल्फाज भी कम पड़ जायें, उन्होंने हमेशा अन्याय के खिलाफ अपनी आवाज मुखर की और न्याय को स्थापित कराने में अपना योगदान दिया।
बहरहाल जिस दौर में सावित्रीबाई फुले ने जन्म लिया था आप सहज अन्दाजा लगा सकते हैं कि, उस समय का समाज कितना कठोर और निर्दयी होने के साथ मानसिक तौर पर संकीर्ण रहा होगा। ऐसे समय में तमाम कष्टों को सहते हुये भी उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन समाज के वंचित लोगों और महिलाओं के अधिकारों को दिलाने के लिए लड़ते हुये न्योछाावर कर दिया था। आज भी महिलाओं के प्रति पुरूषों की सोच और मानसिकता शक के दायरे में है ? जितना महिला को सम्मान मिलना चाहिए शायद वैसा नहीं मिल पा रहा है, लेकिन जिस संघर्ष की नींव सावित्रीबाई ने रखी थी उसे आगे ले जाने के लिए ऐसा प्रतीत होता है कि, एक और सावित्रीबाई जैसी महिला का जन्म इस इक्कीसवीं सदी के मुहाने पर खड़े भारत में होना चाहिए, अगर हम शोषित समाज और महिलाओं के प्रति अपना रवैया उदार रखते हैं तो सही मायनों में ऐसी महान देवी को उनके जन्म दिन पर हमारी सच्ची श्रद्धांजली होगी।