देश के चौथे स्तंभ को दीमक की तरह चाट रही राजनीतिक हस्तियां
– सलीम रज़ा
कहते हैं किसी भी देश का शासक तभी प्रसिद्धि पा सकता है जब उसके सलाहकार मानसिक रूप से स्वस्थ हो, लेकिन जब उसके सलाहकार मानसिक रूप से दिवालिया हो तो पूरे सिस्टम पर उंगली उठना लाजमी है। मुझे घुमा फिरा कर बात कहना आता नहीं है। इसलिए सीधे-सीधे बात करने का साहस अपने आप में खुद पैदा कर लिया। मैं एक बात जानना चाहता हूं उन लोगों से जो सत्य के पुजारी हैं? लेकिन सत्य शब्द सुनने का सामर्थ्य उनके अंदर नहीं है। सत्य बोलना सत्य लिखना यदि जुर्म है तो फिर शब्दकोश से इस शब्द को हटा देना चाहिए? ऐसा करने का साहस उन लोगों में नहीं है। सत्य को बर्दाश्त करना जाने।
कितना दुर्भाग्य है मीडिया को देश का चौथा स्तंभ बताने वाले लोग ही इस चौथे स्तंभ पर प्रहार करने से नहीं चूक रहे हैं। मीडिया हमेशा से विवादों के घेरे में रही है। चाहे वह अंग्रेजों का शासन काल हो या फिर आजाद भारत में हमेशा संघीय प्रणाली का कोपभाजन मीडिया को ही बनना पड़ता है। फिर हम यह बात कैसे कह सकते हैं पत्रकारिता और पत्रकार स्वतंत्र हैं? जी नहीं ऐसे ही बीमार मानसिकता वाले राजनेता जिनके पहरे में पत्रकारिता है और सिर्फ और सिर्फ इनकी नजर में पत्रकार गुलाम है। गुलाम को यह हक नहीं होता कि वह अपने शासक के खिलाफ उंगली उठाए। लोग आपातकाल को याद करके आज भी कांप जाते हैं।
क्योंकि आपातकाल में तत्कालीन सरकार ने बड़े-बड़े राजनेताओं और पत्रकारों पर अपने जुल्म का डंडा चलाया था। उस वक्त अधिकतर समाचार पत्रों को बैन कर दिया गया था। पत्रकारों पर पहरा बैठा दिया गया था। जिन्होंने विरोध करा उन्हें जेल की सलाखों के पीछे भेज दिया गया। इस दमनकारी नीति का परिणाम यह हुआ कि, तत्कालीन सरकार को सत्ता से हाथ धोना पड़ा। यह बात अपने आप में सत्य है जब-जब इन राजनेताओं द्वारा मीडिया को निशाना बनाया जाता है या फिर पत्रकारों पर जुल्म किए जाते हैं तो समझ लीजिए सत्ता वापसी की राह और कठिन हो जाती है। मैं यह देख रहा हूं चाहे कोई भी सरकार रही हो पत्रकारिता उसके कदमों में और पत्रकार कठपुतली बन जाता है।
लेकिन जो इस कठपुतली की डोर तोड़ेगा उसे या तो अपनी जान से हाथ धोना पड़ेगा या फिर उसका रास्ता जेल की तरफ जाता है, ना जाने ऐसे कितने किस्से देखने और सुनने में आए जहां पत्रकारों पर नाजायज मुकदमे लाद दिए गए पहले उत्तर भारत में ही इस तरह के केस देखने को मिले थे, लेकिन अब तकरीबन हर प्रदेश में पत्रकार और पत्रकारिता की दयनीय हालत है। उत्तर प्रदेश में ना जाने ऐसे कितने झूठे मामले हैं जिनमें पत्रकारों को फसाया गया है और उन्हें प्रताड़ित भी किया गया है। हमारे छोटे से प्रदेश उत्तराखंड भी इस बात से अछूता नहीं रहा है। वहां पर भी सरकार ने अपना डंडा पत्रकारों पर चलाया है। चाहे वह वरिष्ठ पत्रकार उमेश शर्मा हो, शिव प्रकाश सेमवाल हो या फिर एहसान अंसारी यह वह लोग हैं। जिन्हें सरकार ने आर्थिक मानसिक और शारीरिक रूप से प्रताड़ित किया है। ऐसे में छोटे समाचार पत्र और छोटे पत्रकार जो सच लिखने में अपनी महारत रखते हैं उन्हें खौफ के साए से दो चार होना पड़ रहा है। कहने को पत्रकारिता देश का चौथा स्तंभ है। लेकिन मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं है। इस चौथे स्तंभ की बुनियाद को दीमक की तरह यह राजनीतिक हस्तियां चाटने में लगी है।