बिग ब्रेकिंग: जज की बर्खास्तगी पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई पूरी, फैसला सुरक्षित

जज की बर्खास्तगी पर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई पूरी, फैसला सुरक्षित

नई दिल्ली। नकदी बरामदगी विवाद में घिरे इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस यशवंत वर्मा की याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को सुनवाई के बाद फैसला सुरक्षित रख लिया है। जस्टिस वर्मा पर अनुच्छेद 124(4) के तहत महाभियोग की सिफारिश की गई थी, जिसे उन्होंने गैर-कानूनी बताते हुए चुनौती दी है।

उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से आग्रह किया है कि तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश द्वारा राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को भेजे गए उस पत्र को रद्द किया जाए, जिसमें तीन सदस्यीय इन-हाउस कमेटी की रिपोर्ट के आधार पर उनकी बर्खास्तगी की सिफारिश की गई थी।

कपिल सिब्बल बोले– “यह खतरनाक मिसाल होगी”

जस्टिस वर्मा की ओर से वरिष्ठ वकील कपिल सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट में जोरदार दलीलें पेश कीं। उन्होंने कहा कि इन-हाउस कमेटी किसी जज को हटाने की सिफारिश नहीं कर सकती, यह संविधान और कानून के खिलाफ है।

सिब्बल ने तर्क दिया कि किसी न्यायाधीश को हटाने की प्रक्रिया केवल संविधान के अनुच्छेद 124 और जजेज इंक्वायरी एक्ट के तहत ही संभव है।

उन्होंने चेतावनी दी कि इस तरह की कार्यवाही न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर आघात कर सकती है और भविष्य में खतरनाक मिसाल बन जाएगी।

सुप्रीम कोर्ट ने पूछा- “अब क्यों आई याचिका?”

सुनवाई के दौरान जस्टिस दीपंकर दत्ता और जस्टिस ए.जी. मसीह की पीठ ने जस्टिस वर्मा के रवैये पर सवाल उठाए। कोर्ट ने कहा कि जब आपने समिति की कार्यवाही में भाग लिया, तब आप चुप थे, अब जब निर्णय आपके खिलाफ आया तो आप सुप्रीम कोर्ट आ गए।

कोर्ट ने तल्ख टिप्पणी करते हुए कहा, “आपने पहले कोर्ट का दरवाजा क्यों नहीं खटखटाया? इस रवैये से आपकी मंशा पर संदेह होता है।”

साथ ही पीठ ने यह स्पष्ट किया कि इन-हाउस कमेटी की जांच प्रारंभिक और गैर-दंडात्मक होती है, जिसमें क्रॉस-एग्ज़ामिनेशन या कठोर सबूतों की आवश्यकता नहीं होती।

सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी: “सीजेआई का दायित्व सिर्फ पत्र भेजना नहीं” कोर्ट ने यह भी कहा कि, अगर मुख्य न्यायाधीश (CJI) के पास किसी न्यायाधीश के गलत आचरण से जुड़े तथ्य हैं, तो राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री को सूचित करना उनका संवैधानिक दायित्व है। ऐसे मामलों में पारदर्शिता और प्रक्रिया का पालन जरूरी है।

अब इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला बेहद अहम होगा, क्योंकि यह सिर्फ एक जज की नियुक्ति या बर्खास्तगी का मामला नहीं, बल्कि न्यायपालिका की आंतरिक जांच प्रक्रियाओं, उनकी वैधता और पारदर्शिता की सीमा तय करने वाला प्रकरण बन गया है।