हरक सिंह रावत पर ED का वार, भ्रष्टाचार के चक्रव्यूह में फंसी सियासत। पढ़ें सत्ता, संपत्ति और संकट की कहानी….
देहरादून। उत्तराखंड की राजनीति में हरक सिंह रावत एक ऐसा नाम रहे हैं जो सत्ता के गलियारों में जितना चर्चित रहा, उतना ही विवादों से भी घिरा रहा।
चाहे कांग्रेस हो या भाजपा, रावत ने समय-समय पर राजनीतिक पाला बदला, मगर अब ऐसा लगता है कि जांच एजेंसियों का शिकंजा इतनी मजबूती से कस चुका है कि निकल पाना आसान नहीं।
ईडी की चार्जशीट और जमीन घोटाला
प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) द्वारा सहसपुर स्थित 70 करोड़ रुपये की जमीन फर्जीवाड़े में हरक सिंह रावत, उनकी पत्नी दीप्ति रावत और उनके नजदीकी सहयोगियों के खिलाफ PMLEA कोर्ट में अभियोजन शिकायत (चार्जशीट) दाखिल किया जाना इस बात का संकेत है कि यह मामला महज़ राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप नहीं रह गया है।
बल्कि इसके पीछे पुख़्ता सबूतों की एक लंबी फेहरिस्त है। जिस भूमि की खरीद-बिक्री अदालत द्वारा पूर्व में अमान्य घोषित की जा चुकी थी, उसी भूमि को फर्जी पावर ऑफ अटॉर्नी के ज़रिए बेचे जाने का प्रयास यह न सिर्फ कानूनी अपराध है बल्कि सत्ता में रहते हुए मिले संरक्षण की पोल भी खोलता है।
परिवारवाद और संस्थागत ढांचे का दुरुपयोग
इस कथित फर्जीवाड़े के केंद्र में जिस “दून इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस” का नाम है, उसका संचालन हरक सिंह के पुत्र तुषित कर रहे हैं। यह दर्शाता है कि किस तरह से राजनीतिक प्रभाव का इस्तेमाल कर परिवार विशेष को लाभ पहुंचाया गया।
एक आम आदमी के लिए मेडिकल कॉलेज खोलना सपना भी नहीं होता, लेकिन राजनीतिक रसूख के बल पर यह सपना भी हकीकत में बदल दिया गया — भले ही वह अवैध रास्तों से क्यों न हो।
कार्बेट कांड की परछाई
हरक सिंह रावत पहले ही कार्बेट पार्क में पेड़ों की अवैध कटाई और अनधिकृत निर्माण के गंभीर आरोपों में सीबीआई और ईडी की जांच के घेरे में हैं।
इन मामलों में भी वन अधिकारियों की मिलीभगत से करोड़ों रुपये का खेल हुआ और उत्तराखंड की प्राकृतिक धरोहर को अपूरणीय क्षति पहुंचाई गई। इस पूरे कांड में नौकरशाही और राजनेता का गठजोड़ साफ दिखाई देता है।
क्या राजनीतिक दलों की चुप्पी मौन समर्थन है?
सबसे बड़ा सवाल यह है कि ऐसे नेताओं को दलों में टिकने और टिकट देने का मौका क्यों मिलता है? भाजपा में रहते हुए जब उन पर कार्बेट घोटाले के बादल मंडरा रहे थे, तब उन्हें पार्टी से निष्कासित कर दिया गया था, लेकिन कांग्रेस ने बिना झिझक उन्हें फिर से अपने खेमे में शामिल कर लिया। क्या यह अवसरवाद नहीं है?
राजनीति को आत्ममंथन की ज़रूरत
हरक सिंह रावत का प्रकरण उत्तराखंड ही नहीं, पूरे देश की राजनीति के लिए एक आईना है। जब तक नेताओं के आचरण पर राजनीतिक दलों द्वारा कठोरता से संज्ञान नहीं लिया जाएगा, तब तक जांच एजेंसियों की कार्रवाई अधूरी रहेगी। सवाल यह भी है कि क्या हरक सिंह अकेले दोषी हैं या उनके पीछे पूरा एक सिस्टम खड़ा है?
अब जब चार्जशीट दाखिल हो चुकी है, उम्मीद की जानी चाहिए कि न्याय प्रक्रिया तेज़ी से आगे बढ़ेगी और यदि दोष सिद्ध होता है, तो सज़ा भी। क्योंकि लोकतंत्र तभी मजबूत होगा जब भ्रष्टाचार के खिलाफ कार्रवाई सिर्फ विपक्ष तक सीमित न रहकर हर दल और हर चेहरे तक पहुंचे।