आजादी पाने से ज्यादा आजादी की रक्षा करना जरूरी
– बगैर शक्तिशाली संगठन के पराधीनता की बेड़ी को काट पाना नामुमकिन
– जब हक न मिले तो दिल में क्रान्तिकारी चिंगारी को फूंकना चाहिए
– आजादी पाने से ज्यादा अपनी आजादी की रक्षा करना देश के हर नागरिक का कर्तव्य
वरिष्ठ पत्रकार- सलीम रज़ा
भारत को आजाद हुये 7 दशक से ज्यादा का अरसा गुजर चुका है, लेकिन आज के परिदृश्य में आजादी पर भी बहस चल रही है। इसी आजादी की लकीर खींचने वाले महान स्वतंत्रता सेनानी भारत के वीर सपूत सुभाष चन्द्र बोस के जज्बे को आज की सियासत ने हाशिये पर धकेल दिया है। 23 जनवरी 1897 को उड़ीसा के कटक में जन्म लेने वाले सुभाष हिन्दुस्तान के वीर सपूत थे। बोस ने हिन्दुस्तान की जनता में ये कूट-कूट कर भरा दिया कि उन्हें जुल्म के आगे झुकना नहीं बल्कि शेर की तरह दहाड़ना चाहिए। शायद मौजूदा हालात इसी का परिचायक हों, जो देश में उथल-पुथल का माहौल बना हुआ है। सुभाष चन्द्र बोस ने एक नारा दिया था ‘तुम मुझे खून दो मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ दरअसल खून देना एक वीर पुरूष का ही काम होता है, नेता जी ने देश की जनता से जो आहवान किया था उसका मतलब सिर्फ आजादी को ही हासिल करना नहीं था बल्कि भारत को युग-युग तक वीर बनाना भी था।
ऐसे में एक वीर ही अपनी आजादी की हिफाजत कर सकता है। क्योंकि आजादी हासिल करने से ज्यादा आजादी की रक्षा करना हर नागरिक का परम कर्तव्य है। ये संदेश देश प्रेम की भावना से ओत-प्रोत देश में भाई-चारा और बन्धुत्व की भावना रखते हुये प्रेम की रसधार बहाता है। इसीलिए उनका जन्मदिन प्रेम दिवस के रूप में मनाया जाता है। हम उस त्रासदी को कैसे भूल सकते हैं, जब हम अंग्रेजों के गुलाम थे। ऐसे में सुभाष चन्द्र बोस को लगा कि, बगैर शक्तिशाली संगठन के पराधीनता की बेड़ी को काट पाना नामुमकिन है। भारत में अंग्रेजों द्वारा जब रोलिंग एक्ट लाया गया, तब देश की आवाम उस एक्ट के खिलाफ सड़को पर उतर आई थी। जिसके परिणाम स्वरूप लोग इस एक्ट के विरोध में जलियांवाला बाग के अन्दर शान्त आन्दोलन के लिए एकत्र हुये। भारतीयों पर जुल्म का कहर बनकर टूट पड़े, और देखते-देखते जलियांवाला बाग खून से लाल हो गया था।
असल में तभी से सुभाष चन्द्र बोस का असली क्रान्तिकारी के रूप में जन्म हुआ। सही मायनों में उसी से दुःखी होकर नेता जी भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के एक प्रमुख नेता के रूप में उभरे थे। उन्होने भारतीय आवाम के बीच राष्ट्रीय एकता, बलिदान और साम्प्रदायिक सौहार्द की भावना को जगाया था। सुभाष चन्द्र बोस एक क्रान्तिकारी विचारधारा रखने वाले व्यक्ति थे। इसलिए कांग्रेस के द्वारा किया जा रहा अहिंसा पूर्ण आन्दोलन उन्हें रास नहीं आया। जिसके चलते उन्होंने कांग्रेस से अपना नाता तोड़ दिया और अंग्रेजों के खिलाफ स्वाधीनता के लिए युद्ध छेड़ दिया। आज की छदम्य राजनीति ने दो धर्मों के बीच खाई बनाकर सत्ता हासिल करने का मूल मंत्र बनाया हुआ है। जो सीधे-सीधे देश की आजादी के लिए अपनी कुर्बानी देने वालों का अपमान है। उन्होंने देश के हर धर्म के लोगों को एक सूत्र में बांधने का काम किया था।
उनके बारे में एक बात प्रचलित है कि, अपने छात्र जीवन में अंग्रेज अध्यापक ने हिन्दी भाषी छात्रों के खिलाफ नफरत भरे शब्दों का इस्तेमाल किया तो उन्होंने अध्यापक को चांटा मार दिया था। वो जानते थे कि धर्म को अलग-अलग बांटकर अंग्रेजों से देश को आजाद नहीं कराया जा सकता है। इसलिए उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए फारवर्ड ब्लाक की स्थापना करी थी। देश के वो नागरिक जो उनकी विचारधारा से इत्तेफाक रखते थे, पूरे जोश के साथ उनके साथ लग लिए जिसे देखकर अंग्रेजों का सिंहासन डोलने लगा। अंग्रेज सुभाष चन्द्र बोस के क्रान्तिकारी विचारों और उनके कार्यों से परेशान हो गये परिणाम रूवरूप अंग्रेजों ने उन्हें जेल भेज दिया। लेकिन उनके क्रान्तिकारी विचारों को वो राक न सके उनके अन्दर देश को स्वाधीन कराने का जुनून था। लिहाजा उन्होंने जेल ही में भूख हड़ताल कर दी। ये बात जैसे ही जेल से बाहर निकलकर आई तो पूरे देश में अशान्ति फैल गई।
नतीजा ये हूआ कि, उन्हें जेल से बाहर लाकर उन्हीं के घर में उन्हें नजरबन्द कर दिया गया। अन्ततः 26 जनवरी 1942 को सुभाष चन्द्र बोस किसी तरह पुलिस को धोखा देकर मुस्लिम नाम जिया उद्दीन बनकर काबुल के रास्ते होकर जर्मनी पहुच गये। हालांकि वहां का शासक हिटलर था लेकिन उसने सुभाषचन्द्र बोस का गर्मजोशी के साथ स्वागत किया था। सुभाष चन्द्र बोस जर्मनी से टोकियो चले गये वहां पहुचकर उन्होंने आजाद हिन्द फौज की स्थापना की, अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष करके भारत को स्वाधीन कराने के लिए बनाई गई इन्डियन नेशनल आर्मी का भी उन्होंने नेतृत्व किया था। आजाद हिन्द फौज का लक्ष्य था कि, वो लड़ते हुये दिल्ली पंहुचकर भारत की आजादी का ऐलान करेंगे या फिर अपने प्राणों की आहुति दे देंगे। लेकिन काश ये सपना पूरा हो पाता उसी दरम्यान द्वितिय विश्व युद्ध में जापान को शिकस्त मिलने के बाद आजाद हिन्द फौज को अपने हथियार डालने पड़े।
ऐसा कहा जाता है कि, सुभाष चन्द्र बोस जब बैंकॉक से टोकियों जा रहे थे, तो विमान में आग लग जाने की वजह से उनकी मृत्यु हो गई थी। लेकिन उनकी मृत्यु अभी भी एक रहस्य बनी हुई है। हालांकि भारत के आजाद हो जाने के बाद सरकार ने उनकी मृत्यु के रहस्य की छान-बीन करने के लिए आयोग भी बनाया, लेकिन नतीज़ा कुछ भी नहीं निकला। सुभाष चन्द्र बोस भारत के ऐसे वीर सपूत थे, जिन्होंने भारतीयों को सिखाया कि, जब उन्हें हक न मिले तो दिल में क्रान्तिकारी चिंगारी को फूंकना चाहिए। तभी आपको स्वाधीनता प्राप्त हो सकती है। ऐसे महा पुरूष के मूल मंत्र को किसी भी भारतीय को नहीं भूलना चाहिए कि, आजादी पाने से ज्यादा अपनी आजादी की रक्षा करना देश के हर नागरिक का कर्तव्य है।
देश की आजादी तभी तक सुरक्षित है जब सर्वधर्म एक जुटता के धागे में बंधे है। जब भी देश में जाति, धर्म और नस्ल पर सरकारें चलेंगी तो अशान्ति का दौर रहेगा। जिससे निपटना मुश्किल भी हो सकता है। उस वीर सपूत की जयंती पर उन्हें श्रद्धासुमन अर्पित किये जाते हैं। उनकी शान में कसीदे पढ़े जाते है। लेकिन उनके विचारों पर अमल क्यों नहीं किया जाता? जिन्होंने धर्म की सीमाओं और बंधन को दूर रखा भले ही आजादी न दिला पाये लेकिन उनका एकता का सूत्र और मुत्र ही भारत को आज़ादी की दहलीज तक ले गया। ऐसे वीर पुरूष को भारत के इतिहास में बहुत ही श्रद्धा के साथ याद किया जायेगा। सुभाष चन्द्र बोस जी को शत-शत नमन।