बिग ब्रेकिंग: उत्तराखंड हाईकोर्ट ने पॉक्सो केस में आजीवन कारावास पाए बुजुर्ग को किया बाइज्जत बरी

उत्तराखंड हाईकोर्ट ने पॉक्सो केस में आजीवन कारावास पाए बुजुर्ग को किया बाइज्जत बरी

  • गवाहों के विरोधाभासी बयान, देरी से दर्ज रिपोर्ट और तथ्यों की कमी पर खंडपीठ का बड़ा फैसला

देहरादून। उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने सोमवार को एक महत्वपूर्ण आदेश पारित करते हुए पॉक्सो एक्ट के तहत आजीवन कारावास की सजा काट रहे उधमसिंहनगर (यूएसनगर) के दिनेशपुर निवासी अमल बड़ोही को बाइज्जत बरी कर दिया।

न्यायमूर्ति रविन्द्र मैठाणी और न्यायमूर्ति आलोक मेहरा की खंडपीठ ने गवाहों के बयानों में गंभीर विरोधाभास और शिकायत दर्ज कराने में असामान्य देरी को देखते हुए यह फैसला सुनाया।

मामले की पृष्ठभूमि

अमल बड़ोही के खिलाफ वर्ष 2016 में एक 68 वर्षीय बुजुर्ग महिला ने अपनी पुत्री और 8 वर्षीय नातिन के साथ दुराचार का आरोप लगाया था। उनके आधार पर पुलिस ने मुकदमा दर्ज कर अमल को गिरफ्तार किया।

निचली अदालत ने 8 वर्षीय पीड़िता के बयान और मेडिकल रिपोर्ट को आधार मानते हुए आरोपी को पॉक्सो एक्ट में आजीवन कारावास की सजा सुनाई थी।

गवाहों के मुकरने के बाद भी मिली थी सजा

इस मुकदमे की सुनवाई के दौरान आश्चर्यजनक रूप से शिकायतकर्ता बुजुर्ग महिला, उसकी पुत्री और अन्य गवाह अपने आरोपों से पीछे हट गए। इसके बावजूद निचली अदालत ने पीड़िता के बयानों और मेडिकल साक्ष्यों को पर्याप्त मानते हुए आरोपी को दोषी ठहराया।

हाईकोर्ट में चुनौती—देरी पर उठे सवाल

अमल बड़ोही की ओर से उच्च न्यायालय में तर्क दिया गया कि,

  • कथित घटना की FIR 42 दिन बाद दर्ज की गई।
  • FIR के 52 दिन बाद पीड़िता के धारा 164 CrPC के बयान दर्ज हुए।
  • शिकायतकर्ता और प्रमुख गवाह बाद में अपने आरोपों से मुकर गए।

बचाव पक्ष ने दलील दी कि यह देरी और गवाहों का बदलता रुख मामले को संदेहास्पद बनाता है, और निचली अदालत ने इन महत्वपूर्ण तथ्यों को नजरअंदाज किया।

हाईकोर्ट का फैसला—’संदेह का लाभ आरोपी को’

खंडपीठ ने पाया कि,

  • गवाहों के बयान विश्वसनीय नहीं थे।
  • FIR एवं बयान दर्ज करने में हुई लंबी देरी का संतोषजनक कारण नहीं दिया गया।
  • अभियोजन पक्ष आरोप साबित करने में असफल रहा।

इन परिस्थितियों को देखते हुए कोर्ट ने कहा कि संदेह का लाभ आरोपी को दिया जाएगा, और अमल बड़ोही को बरी करने का आदेश पारित किया।

हाईकोर्ट के इस फैसले ने एक बार फिर यह सिद्ध किया है कि पॉक्सो जैसे संवेदनशील मामलों में न्यायालय साक्ष्यों की विश्वसनीयता, गवाहों की निरंतरता और कानूनी प्रक्रिया के पालन को सर्वोच्च महत्व देता है। विरोधाभासी गवाही और देरी जैसी स्थितियाँ अभियोजन के पूरे केस को कमजोर कर देती हैं।