राजकीय दून मेडिकल कॉलेज को कई फैकल्टी ने किया ‘गुड बाय’, देखें लिस्ट….
- एनपीए नियम, ट्रांसफर पॉलिसी और कम सैलरी बने मुख्य कारण
देहरादून। राज्य की राजधानी स्थित राजकीय दून मेडिकल कॉलेज, चिकित्सालय में फैकल्टी की कमी एक गंभीर समस्या बन गई है।
कॉलेज में कार्यरत प्रोफेसरों, एसोसिएट प्रोफेसरों और असिस्टेंट प्रोफेसरों की सूची से स्पष्ट है कि कई विभागों में पद वर्षों से रिक्त हैं, जबकि जो चिकित्सक तैनात हैं, वे अत्यधिक वर्कलोड और प्रशासनिक जटिलताओं से जूझ रहे हैं।
डॉक्टरों और कॉलेज से जुड़े सूत्रों के मुताबिक, फैकल्टी संकट की सबसे बड़ी वजहें हैं, एनपीए (Non-Practicing Allowance) नीति, अस्पष्ट ट्रांसफर पॉलिसी, वर्कलोड का असंतुलन और प्राइवेट कॉलेजों की तुलना में बेहद कम वेतन।
एनपीए नियम बना डॉक्टरों के लिए बंधन
राजकीय दून मेडिकल कॉलेज सहित उत्तराखंड के सरकारी मेडिकल संस्थानों में डॉक्टरों को एनपीए (Non-Practicing Allowance) दिया जाता है, जिसके बदले उन्हें निजी प्रैक्टिस करने की अनुमति नहीं होती।
राजस्थान, मध्य प्रदेश, केरल जैसे राज्यों में यह नियम वैकल्पिक (optional) है, लेकिन उत्तराखंड में यह अनिवार्य है।
डॉक्टरों का कहना है कि एनपीए लेने के बाद जब प्राइवेट प्रैक्टिस का अधिकार खत्म हो जाता है, तो उनकी आय सीमित हो जाती है।
इसी कारण कई अनुभवी चिकित्सक बेहतर अवसरों की तलाश में निजी मेडिकल कॉलेजों या अन्य राज्यों की ओर पलायन कर रहे हैं।
ट्रांसफर पॉलिसी और प्रमोशन में अव्यवस्था
दून मेडिकल कॉलेज के कई डॉक्टरों ने ट्रांसफर नीति पर नाराज़गी जताई है। कुछ डॉक्टर सालों से एक ही जगह पर हैं, जबकि कई को बार-बार ट्रांसफर झेलने पड़ रहे हैं।
प्रमोशन प्रक्रिया भी धीमी और जटिल है।
नेशनल मेडिकल कमीशन (NMC) के मानकों के अनुसार पदोन्नति के लिए आवश्यक पद समय पर सृजित नहीं किए जा रहे, जिससे कई डॉक्टर वर्षों से एक ही पद पर अटके हुए हैं।
वर्कलोड से जूझ रहे डॉक्टर
राजकीय दून मेडिकल कॉलेज में सीमित फैकल्टी होने के कारण डॉक्टरों को ओपीडी, इमरजेंसी, वार्ड राउंड, सर्जरी और शिक्षण सभी जिम्मेदारियाँ एक साथ निभानी पड़ती हैं।
कॉलेज के एक वरिष्ठ डॉक्टर के अनुसार, “एक ही व्यक्ति से तीन-तीन शिफ्टों का काम लिया जा रहा है, लेकिन स्टाफ की भर्ती नहीं हो रही।” इससे डॉक्टरों में मानसिक दबाव और असंतोष बढ़ता जा रहा है।
प्राइवेट कॉलेजों से वेतन में भारी अंतर
राजकीय दून मेडिकल कॉलेज के डॉक्टरों का कहना है कि प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में समान पद पर कार्यरत डॉक्टरों की तुलना में उनका वेतन करीब 30 से 40 प्रतिशत तक कम है। वहीं वर्कलोड कहीं ज्यादा है। कई डॉक्टरों ने इसे “सरकारी सेवा की सबसे बड़ी विडंबना” बताया है।
मेडिकल शिक्षा और मरीज सेवा पर असर
- फैकल्टी की कमी और बढ़ते वर्कलोड का असर मेडिकल छात्रों की शिक्षा और मरीज सेवाओं की गुणवत्ता पर भी पड़ रहा है।
- कई विभागों में क्लासेस और क्लिनिकल ट्रेनिंग नियमित रूप से नहीं हो पा रही।
- वहीं अस्पताल में मरीजों की संख्या बढ़ने से सेवा पर भी दबाव बढ़ा है।
जरूरत है ठोस सुधारों की
स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि सरकार यदि एनपीए को वैकल्पिक बनाए, ट्रांसफर पॉलिसी को पारदर्शी करे और कॉलेजों में फैकल्टी के नए पद सृजित करे, तो डॉक्टरों की कमी दूर की जा सकती है।
वरना दून मेडिकल कॉलेज जैसे प्रमुख संस्थान भी आने वाले वर्षों में स्टाफ संकट और गुणवत्ताहीन चिकित्सा शिक्षा की समस्या से जूझते रहेंगे।
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