उत्तराखंड वन विभाग में वर्षों से पलता भ्रष्टाचार। नरेंद्रनगर घोटाले पर कब होगा न्याय?
देहरादून। उत्तराखंड का वन विभाग वर्षों से भ्रष्टाचार का अड्डा बना हुआ है। नरेंद्रनगर वन प्रभाग का मामला इस बात का ज्वलंत प्रमाण है कि कैसे एक भ्रष्ट अधिकारी को बचाने के लिए पूरा सरकारी तंत्र झुकता रहा।
जांचों में दोष सिद्ध होने के बावजूद न कार्रवाई हुई, न ही जवाबदेही तय की गई। अब मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी की जीरो टॉलरेंस नीति के तहत मामले ने फिर से तूल पकड़ा है, और आरोपी अधिकारी से शासन ने जवाब तलब किया है।
राजनीतिक संरक्षण में पलता रहा भ्रष्टाचार
इस पूरे प्रकरण में एक प्रमुख अधिकारी को बचाने के लिए शासन और प्रशासन के उच्चतम स्तरों पर दबाव बनाया गया। बताया जाता है कि उक्त अधिकारी एक प्रभावशाली राजनेता का दामाद है, यही वजह रही कि जांच में दोष सिद्ध होने के बावजूद विभागीय कार्रवाई की बजाय “भविष्य में सावधानी बरतने” की सलाह देकर छोड़ दिया गया।
पूर्व मुख्यमंत्री के हस्तक्षेप से बदली गई रिपोर्ट
पूर्व में प्रमुख सचिव द्वारा डीएफओ पर दोष तय करते हुए स्थानांतरण और अनुशासनात्मक कार्रवाई की सिफारिश की गई थी, लेकिन तत्कालीन मुख्यमंत्री के निर्देश पर न केवल प्रमुख सचिव बदला गया, बल्कि नई रिपोर्ट में डीएफओ को “अनुभवहीन और शिथिल” कहकर क्लीन चिट दे दी गई। यह सीधे-सीधे सत्ता के हस्तक्षेप से जांच को प्रभावित करने का गंभीर उदाहरण है।
घोटालों की लिस्ट लाजवाब, कार्रवाई लापता
- बग्वासेरा में ₹2.60 लाख की पुलिया कागज़ों में बनी, धरातल पर शून्य।
- गजा-शिवपुरी मार्ग पर ₹6 लाख की लागत से 73 पुश्ते फाइलों तक ही सीमित।
- ढालवाला में ₹66.40 लाख की हाथी सुरक्षा दीवार बिना टेंडर और स्वीकृति के।
- मधुमक्खी बक्से बिना स्टॉक सप्लाई दिखाकर ₹1 लाख की हेराफेरी।
- वन आरक्षी भर्ती में अभ्यर्थी की लंबाई फर्जी दिखाकर ₹5 लाख की रिश्वत।
जांच पर जांच, पर नहीं कोई ठोस परिणाम
इस घोटाले में जिलाधिकारी, मुख्य विकास अधिकारी, उप वन संरक्षक, अपर प्रमुख वन संरक्षक और प्रमुख सचिव तक की जांचों में डीएफओ को दोषी ठहराया गया। इसके बावजूद केवल एक रेंजर को जेल भेजकर पूरे मामले को दबा दिया गया। डीएफओ पर न विभागीय कार्रवाई हुई, न आपराधिक मुकदमा चला।
नकद भुगतान प्रणाली बनी भ्रष्टाचार की जड़
आरटीआई कार्यकर्ता जे.के. ने खुलासा किया कि विभाग में आज भी नकद भुगतान और मस्टरोल जैसी अपारदर्शी प्रक्रियाएं चल रही हैं। अधिकारी खुद ही ठेकेदार बन बैठे हैं और योजनाओं का कोई सार्वजनिक उद्घाटन या जन भागीदारी नहीं होती।
क्या अब आएगा बदलाव?
उत्तराखंड सरकार द्वारा अब आरोपी अधिकारी से जवाब तलब किया गया है, जिससे उम्मीद बंधी है कि भ्रष्टाचार के इस गहरे जाल में कुछ न्याय दिखाई देगा। यदि पूर्व में हुई अनियमितताओं पर निष्पक्ष कार्रवाई नहीं होती, तो यह न सिर्फ कानून का उपहास है, बल्कि सिस्टम की नीयत पर भी सवाल है।
नरेंद्रनगर का यह मामला उत्तराखंड के लिए एक चेतावनी है कि अगर समय रहते ऐसे मामलों पर सख्त कार्रवाई नहीं की गई, तो “भ्रष्टाचार पर जीरो टॉलरेंस” महज एक नारा बनकर रह जाएगा। अब देखना यह है कि वर्तमान सरकार इस मामले में कितनी पारदर्शिता और संकल्प के साथ कार्रवाई करती है।