सुप्रीम कोर्ट ने पलटा निचली अदालत का फैसला। कहा, आर्टिकल पर रोक लगाना गला घोंटने जैसा
अभिव्यक्ति की आजादी के मामले में सुप्रीम कोर्ट की तीन जजों की पीठ ने बड़ा आदेश पारित किया है। अंतरराष्ट्रीय मीडिया समूह ब्लूमबर्ग से जुड़ी अवमानना याचिका के मामले में चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली तीन जजों की पीठ ने कहा, अदालतों को असाधारण मामलों को छोड़कर किसी समाचार लेख के प्रकाशन के खिलाफ एकपक्षीय निषेधाज्ञा (Ex-Parte Injunction) नहीं देना चाहिए।
अदालत ने साफ किया कि लेखक की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार और जनता के जानने के अधिकार पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है। इस टिप्पणी के साथ शीर्ष अदालत ने देश की मशहूर मीडिया समूह के खिलाफ कथित तौर पर अपमानजनक समाचार लेख का प्रकाशन रोकने वाले ट्रायल कोर्ट के आदेश को भी निरस्त कर दिया।
सुप्रीम कोर्ट ने मीडिया की आजादी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से जुड़े एक मामले में अहम फैसला सुनाया है. अपने एक हालिया फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अदालतों को दूसरे पक्ष को सुने बिना किसी भी न्यूज आर्टिकल पर रोक नहीं लगानी चाहिए।
ऐसा सिर्फ अपवाद के रूप में हो सकता है. कोर्ट ने कहा कि इस तरह रोक लगाने से लेखक की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोगों के जानने के अधिकार पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है. ये मामला अंतरराष्ट्रीय मीडिया ग्रुप ब्लूमबर्ग के एक न्यूज आर्टिकल से जुड़ा है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर ये टिप्पणी चीफ जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली तीन जजों की बेंच ने की. समाचार एजेंसी पीटीआई की रिपोर्ट के मुताबिक, कोर्ट ने ये फैसला देते हुए निचली अदालत के आदेश को रद्द कर दिया।
ब्लूमबर्ग ने ज़ी एंटरटेनमेंट पर एक आर्टिकल छापा था. इसी को अपमानजनक बताते हुए ट्रायल कोर्ट ने आर्टिकल हटाने का निर्देश दिया था. लेकिन अब सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि किसी भी कॉन्टेंट के प्रकाशन पर रोक का आदेश पूरी सुनवाई के बाद ही दिया जाना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट की इस बेंच में CJI चंद्रचूड़ के अलावा जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा भी थे. बेंच ने कहा कि जब तक ये साबित न हो जाए कि कोई कॉन्टेंट “दुर्भावनापूर्ण” या “साफ तौर पर गलत” है, तब तक एकतरफा तरीके से इस तरीके से रोक का आदेश नहीं देना चाहिए.
कोर्ट ने और क्या कहा?
1 – सुनवाई पूरी होने से पहले आर्टिकल पर रोक लगा देना सार्वजनिक बहस का गला घोंटने जैसा है।
2 – आरोप साबित होने से पहले आर्टिकल को हटवाना उस कॉन्टेंट को ‘मौत की सजा’ देने के बराबर है।
3 – ऐसा करने से बचाव पक्ष की तरफ से दी गई दलीलें असफल होंगी।
4 – इस तरह की अंतरिम रोक लगाने से पहले अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और सार्वजनिक भागीदारी पर रोक जैसे मुद्दों पर भी ध्यान देना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट कैसे पहुंचा मामला?
इस साल 21 फरवरी को ब्लूमबर्ग ने ज़ी ग्रुप पर एक आर्टिकल छापा था. टाइटल था- ‘India Regulator Finds $241 Million Accounting Issue at Zee’ यानी भारतीय नियामक को ज़ी के अकाउंटिंग में 2000 करोड़ रुपये की गड़बड़ी मिली।
खबर में लिखा गया था कि सिक्योरिटीज और एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया (SEBI) ने ज़ी एंटरटेनमेंट एंटरप्राइजेज लिमिटेड के अकाउंट्स में 2 हजार करोड़ रुपये से ज्यादा की गड़बड़ी मिली है. ब्लूमबर्ग ने आर्टिकल में दावा किया कि ये पैसे अवैध तरीके से डायवर्ट किए गए. और ये SEBI के अधिकारियों ने शुरुआत में जो अनुमान लगाया था, उससे 10 गुना ज्यादा है।
इसके तुरंत बाद ज़ी ग्रुप ने ब्लूमबर्ग के खिलाफ मानहानि का मुकदमा कर दिया. ज़ी ने ब्लूमबर्ग के लेख में छपे दावों को खारिज किया और कहा कि ये आर्टिकल ग्रुप को बदनाम करने के मकसद से छापा गया. ग्रुप ने दावा किया कि आर्टिकल में ज़ी के बिजनेस ऑपरेशन पर अनुमान को सच की तरह लिखा गया, लेकिन अवैध फंड के डायवर्जन के आरोपों का कोई आधार नहीं था।
ज़ी ने ये भी दावा किया कि आर्टिकल छपने के बाद उसके स्टॉक की कीमत करीब 15 फीसदी तक गिर गई. इन सब दावों के आधार पर ज़ी ने कोर्ट से अपील की कि ब्लूमबर्ग के आर्टिकल को हटाया जाए.
कोर्ट ने आर्टिकल हटाने का आदेश दिया
एक मार्च को दिल्ली की एक निचली अदालत ने ज़ी के पक्ष में फैसला सुनाया. और ब्लूमबर्ग को निर्देश दिया कि वो आर्टिकल को हटाए. फिर ब्लूमबर्ग ने इस फैसले को दिल्ली हाई कोर्ट में चुनौती दी।
14 मार्च को हाई कोर्ट ने निचली अदालत के फैसले को बरकरार रखा. इसके बाद ब्लूमबर्ग को सुप्रीम कोर्ट पहुंचना पड़ा. अब सुप्रीम कोर्ट ने निचली अदालत के जज को निर्देश दिया कि वे इस मसले पर दोबारा आदेश पारित करें।
निचले अदालत के आदेश में हस्तक्षेप की जरूरत इसलिए पड़ी
सुप्रीम कोर्ट में तीन जजों की खंडपीठ ने कहा, यह एक मीडिया प्लेटफॉर्म के खिलाफ मानहानि की कार्यवाही में दी गई निषेधाज्ञा का मामला है। संवैधानिक रूप से संरक्षित अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार पर निषेधाज्ञा का गहरा प्रभाव पड़ रहा है। इस कारण निचले अदालत के आदेश में हस्तक्षेप की जरूरत है।
ट्रायल कोर्ट के गलत आदेश को हाईकोर्ट ने भी बरकरार रखा
सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ट्रायल जज की गलती को उच्च न्यायालय ने बरकरार रखा। आदेश में केवल यह दर्ज करना कि ‘निषेधाज्ञा के लिए प्रथम दृष्टया मामला बनता है,’ पर्याप्त नहीं। इससे पलड़ा ज़ी के पक्ष में झुकता है।
इससे अपूरणीय क्षति भी होगी। क्योंकि मामले में दिमाग का इस्तेमाल नहीं किया गया। अदालत ने ज़ी को नए सिरे से निषेधाज्ञा की मांग की अपील करने के लिए ट्रायल कोर्ट में नया मुकदमा करने की स्वतंत्रता भी दी।
सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश का कितना असर पड़ेगा; अदालत की दो टूक- हमने पैरामीटर तय किए
शीर्ष अदालत ने स्पष्ट किया कि फैसले और आदेश के उपरोक्त खंड को वर्तमान मामले की खूबियों पर टिप्पणी के रूप में नहीं माना जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने साफ किया कि अंतरिम निषेधाज्ञा से जुड़े आदेश के उपरोक्त खंड का उद्देश्य आवेदन की सुनवाई के दौरान ध्यान में रखे जाने वाले व्यापक पैरामीटर प्रदान करना है।