तेजी से बदल रहे प्रदेश के राजनीतिक हालात। क्षेत्रीय दलो अब तो संभलो, नहीं तो इतिहास बन जाओगे!
– संगठित और सुदृढता के साथ धरातल पर उतरने की जरूरत
देहरादून। पहाड़, पहाड़ियत और प्रकृति-संस्कृति की दुहाई राजनीति में अब नहीं चलेगी। पहाड़ का युवा पंजाबी पाॅप पर थिरकता है और लोकसंस्कृति की बात दिल्ली, गाजियाबाद और दून तक नाच-गानों में सिमट जाती है। पहाड़ी शादी-ब्याह में ही गढ़वाली-कुमाऊंनी और जौनसारी गीतों पर थिरकते हैं। जब बात राजनीति की आती है तो वो हिन्दू-मुस्लिम, पहाड़-मैदान, गढ़वाल-कुमाऊं, क्षत्रिय-ब्राहमण में बदल जाते हैं। 2026 के परिसीमन के बाद सीएम भी मैदानी ही होगा। यही कारण है कि, भाजपा ने पहाड़ियत को नकारते हुए मदन कौशिक को प्रदेश अध्यक्ष बना दिया। भाजपा को पहाड़ियों की कमजोरी का एहसास हो गया है कि, राम-मंदिर और हिन्दुत्व के नाम पर इनको मूर्ख बनाया जा सकता है। पहाड़ी जब मैदानों में भी चुनाव जीतने लगे तो क्या फर्क पड़ता है कि, प्रदेश अध्यक्ष पहाड़ी हैं या मैदानी। आम आदमी पार्टी ने कर्नल अजय कोठियाल को झाडू थमा दिया। कांग्रेस में वर्चस्व के लिए गुटबाजी है। यह सब राजनीति है।
आम आदमी पार्टी को कांग्रेस की कमजोरी का एहसास हुआ और उसने सेंधमारी कर ली। कर्नल अजय कोठियाल को जो लोग सोशल मीडिया पर निंदा कर रहे हैं उन्हें भी एहसास है कि, आप के पास तुरुप का इक्का हाथ लगा है। कांग्रेस और भाजपा को भी इसका आभास है। केदारनाथ आपदा में तत्कालीन सीएम हरीश रावत ने कर्नल के जज्बे, और लीडरशिप को देखा है। भाजपा घमंड में है कि, मुस्लिमों के खिलाफ दो चार बातें करो और वोट हथिया लो। कर्नल को जिसने भी नजदीक से देखा और पहचाना है वो जानते हैं कि, ये कर्नल गोल्फ या तंबोला खेलने वाला नहीं है, ये पागल कर्नल है, जो ठान लेता है उसे पागलपन की हद तक पूरा करता हेै। आप ने पहाड़ी नायक को अपनाकर राजनीति के शतरंज में भाजप और कांग्रेस को चैकमेट दिया है।
यूकेडी उत्तराखंड की राजनीति में दम तोड़ता हुआ दल है। मोहन काला, मोहित डिमरी, मीनाक्षी धिल्डियाल, शिव प्रसाद सेमवाल और दस-12 और लोग इस दल को वेंटीलेटर पर सांसें देने का काम कर रहे हैं। बिना संसाधनों और बिना हौसले के कब तक देंगे? दल के वरिष्ठ नेता नवाब वाजिद अली शाह की तर्ज पर मस्त हैं। कोई नीति नहीं, कोई रणनीति नहीं। सोच रहे हैं कि, भावनाओं के दम पर जंग जीत लेंगे। सब के सब मुंगेरी लाल के हसीन सपने देख रहे हैं। यूकेडी राजनीति में कितनी अधकचरी है इसका अंदाजा सल्ट के उपचुनाव में उनके उम्मीदवार से लगाया जा सकता है। 40 साल पुरानी पार्टी के उम्मीदवार का पर्चा खारिज हो जाएं तो नैतिकता के आधार पर पूरी कार्यकारिणी को इस्तीफा देना चाहिए।
ऐसे में यदि क्षेत्रीय दलों को अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाना है तो उन्हें एकजुट होना होगा। हां, यदि ब्लैकमेलिंग और अहंकार के लिए अध्यक्ष और कार के आगे तख्ती लगानी है तो फिर अलग-अलग ही ठीक है। लेकिन इतना बता दूं कि, पुलिस का एक हवलदार भी उस कार का चालान करते हुए जरा भी नहीं झिझकेगा। उपपा के पास शायद 10 या 11 कार्यकर्ता होंगे। सर्वजन स्वराज के पास 20, यूकेडी के पास अधिकतम एक हजार, उत्तराखंड प्रगतिशील पार्टी के पास 5 या 6। कुल मिलाकर सभी दलों के पास 2 हजार सक्रिय कार्यकर्ता भी नही तो घमंड किस बात का?