उद्यान विभाग के रखवालों ने बरबाद किया चौबटिया का सेब बगीचा
– विभाग के सभी फल शोध केंद्र बन्द होने के कगार पर
डॉ राजेन्द्र कुकसाल
देहरादून। राज्य बनने के बाद आश जगी थी कि, अपने राज्य की सरकारें पुरखों के रखे राज्य में उद्यान विकास की आधारशिला को यहां के बागवानों के हित में उन्नति के पथ पर आगे बढायेंगें। लेकिन आज उद्यान विकास की पुरखों की रखी यही आधार शिला बन्द होने के कगार पर है। उद्यान विकास द्वारा ही इस पहाड़ी राज्य का आर्थिक विकास सम्भव था, किन्तु बिडम्बना देखिये राज्य बने उन्नीस वर्षों में भी उद्यान विभाग को स्थाई निदेशक नहीं मिला, राज्य बनने से अब तक दस से अधिक कार्य वाहक निदेशक एक या दो वर्षों के लिए बने जो अपना सेवा विस्तार बढ़ाने के चक्कर में हुक्मरानों के कहे अनुसार कार्य करते रहे।
उसी का दुष्परिणाम है कि, आज सभी आलू फार्म, औद्यानिक फार्म, सभी फल शोध केंद्र बन्द होने के कगार पर है। एक समय था जब उद्यान विभाग फल पौध, सब्जी बीज, आलू बीज के उत्पादन में आत्मनिर्भर था तथा कृषकों की सभी मांगे उद्यान विभाग समय पर पूरा करता था। आज सारी गतिविधियां बंद पड़ी है। योजनाओं में सारे निवेश निजि कम्पनियों या दलालों के माध्यम से क्रय किए जा रहे हैं। अधिकारियों की फौज खड़ी कर दी गई है। ज्यादातर अधिकारी व कर्मचारी देहरादून में बैठा दिये गये है। उद्यान निदेशालय चौबटिया रानीखेत को एक अधिकारी चला रहा है।
उद्यान विभाग आज एक सफेद हाथी मात्र बनकर रह गया है। राज्य सरकारों के शासन/ प्रशासन का यह कृत्य दुर्भाग्य पूर्ण ही नहीं निंदनीय भी है , इसकी जितनी भर्सना की जाय कम ही है।
राज्य बनने के बाद कई शोध संस्थान विश्व विद्यालय राज्य में बने जिनमें आज़ भी संसाधनों की कमी है किन्तु सभी संसाधनों के होते हुए भी इन शोध केन्द्रौ की उपेक्षा की गई राज्य सरकार यदि इन शोध केन्द्रौ को विकसित नहीं कर सकती हैं तो इन फल शोध केंन्द्रौं को समय रहते भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद या अन्य केंद्रीय शोध संस्थान को हस्तांतरण के लिए प्रस्ताव बना कर भारत सरकार को भेजना चाहिए, जिससे ये सभी शोध केंद्र फिर से जीवित हो सके तथा स्थानीय बागवानों की ज्वलंत समस्याओं का निराकरण किया जा सके।
समाचार पत्रों की टिप्पणियां
अमेरिकी लालच में हुआ स्वदेशी बागवानी का बंटाधार। उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में बागवानी को अर्थव्यवस्था का मजबूत आधार बनाने के मकसद से 1953 में चौबटिया में स्थापित उद्यान निदेशालय के अफसरों ने ही बंटाधार किया है। उद्यान निदेशालय की कार्यप्रणाली से असंतुष्ट कभी 400 क्विंटल सालाना सेब पैदा करने वाला चौबटिया का बगीचा इतने सालों में ऐसा बर्बाद हुआ कि, आज सिर्फ चार क्विंटल सेब यहां पैदा होता है। उद्यान निदेशालय की कार्यप्रणाली से एक भी बागवान संतुष्ट नहीं है।
विदेशी सेब के लालच में इस निदेशालय में बैठने वाले नीति निर्धारकों ने बगीचे से पुराने स्वदेशी प्रजाति के सेब के पेड़ों का सफाया कर अमेरिकी सेब के पौधे लगा दिए, लेकिन इस बात का ध्यान नहीं रखा गया कि, अमेरिकी सेब के लिए यहां की जलवायु कैसी है। बागवानों को अर्थव्यवस्था की मुख्य धारा से जोड़ने का सपना बगीचे की बर्बादी के साथ ही चकनाचूर हो गया। चौबटिया में 106.91 हेक्टेअर भूमि में बगीचा और रिसर्च सेंटर स्थापित किया गया था। 53 हेक्टेअर में डेलीसिस, रॉयमर, फेनी, रेड गोल्ड, गोल्डन वैली जैसी सेब की स्वदेशी प्रजाति के पेड़ लगाए गए।
हिमाचल प्रदेश, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड में भी यहीं के रिसर्च सेंटर से सेब के पौधे जाते थे। छह साल पहले बगीचे में से स्वदेशी प्रजाति के सेब के पौधों का सफाया कर अमेरिकी रेड फ्यूजी, रेड चीफ, डे बर्न जैसी बौनी प्रजाति के पौधे लगाए गए। बताते हैं कि, अमेरिका से चौबटिया तक एक पौधा 400 रुपए में पहुंचा। कुल पांच हजार पौधे मंगाए गए और इन पौधों को 10 हेक्टेअर भूमि में लगाया गया, मगर जलवायु इस प्रजाति के अनुकूल न होने के कारण सेब का उत्पादन न के बराबर हो रहा है।
पुराने बगीचे के 43 हेक्टेयर क्षेत्रफल में सब्जी और अन्य फलों के पौधे लगा दिए गए। उद्यान अधीक्षक बीएल वर्मा बताते हैं कि, वर्तमान में सिर्फ 10 हेक्टेयर भूमि में ही सेब का उत्पादन हो रहा है। अफसरों की काहिली की वजह से इस बर्बादी को रोकने के लिए सरकार ने भी कोई प्रयास नहीं किए। उत्तराखंड बनने के बाद यहां का रिसर्च सेंटर पंतनगर शिफ्ट हो गया था। 2012 में फिर से रिसर्च सेंटर यहां शिफ्ट किया गया, लेकिन अब रिसर्च नहीं होता, बल्कि मालियों को प्रशिक्षण दिया जाता है। एक तरह से उद्यान निदेशालय ने शानदार बगीचे को उजाड़कर बागवानों का भविष्य गर्त में धकेलने का भी काम किया है।
बागवानों को पसंद नहीं अमेरिकी सेब
क्षेत्र के सेब उत्पादक बागवानों ने पिछले तीन सालों से उद्यान निदेशालय से अमेरिकन प्रजाति के सेब के पौधे लेने बंद कर दिए हैं। उनका कहना है कि, अमेरिकन सेब के पेड़ पर कीड़ा लग जाता है। दूसरी तरफ अमेरिकन प्रजाति का एक पेड़ चार से पांच किलो फल देता है। जबकि स्वेदशी प्रजाति के पेड़ एक बार में एक क्विंटल से अधिक फल देते हैं।
खट्टे-मीठे सेब के दीवाने थे अंग्रेज
अंग्रेज हुक्मरानों को खट्टा-मीठा सेब बेहद पसंद था। इस सेब का नाम रेड गोल्ड, गोल्डन वैली था। इसे अंग्रेज विदेशों से अपने साथ लेकर आए थे। धीरे-धीरे यह प्रजाति यहां मशहूर हुई। ग्रामीण क्षेत्रों में आज भी इस प्रजाति का उत्पादन होता है।
रखवालों ने ही बर्बाद किया चौबटिया का सेब बगीचा
रानीखेत (अल्मोड़ा)। चौबटिया उद्यान का सेब बगीचा बर्बाद हो गया। इस बार बगीचे में सिर्फ चार क्विंटल सेब पैदा हुआ था। इस हालत के लिए बगीचे के रखवालों को ही जिम्मेदार माना जा रहा है। माना भी क्यों नहीं जाए क्योंकि सेब की पुरानी प्रजाति का सफाया कर अमेरिकी पौधे तो लगा दिए गए मगर यह प्रजाति यहां होगी या फिर नहीं इस बारे में नहीं सोचा। नतीजा सामने है कि, चार सो क्विंटल सेब देने वाला बगीचा उजड़ने के कगार पर है।